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● आओ जानें दीपदानोत्सव का महत्व
लेख - शांती स्वरूप बौद्ध
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विगत २००५ में हमारे पास गाजीपुर के जमानिया से शत्रुध्न कुमार शाक्य जी के साथ कुछ साथी आए। उन्होंने बताया कि हम प्रत्येक वर्ष २ फरवरी को जगदेव बाबू जी के जन्मदिन पर जमनिया में सम्राट अशोक स्तंभ के पास ही 'लटिया महोत्सव' का आयोजन करते हैं। आप उस कार्यक्रम में बतौर मुख्य वक्ता के अवश्य ही पधारें। यद्यपि में उस कार्यक्रम में नहीं जा सका, बाद में भी नहीं जा सका। मगर ग्रुप के माननीय शत्रुघ्न शाक्य जी ने बताया कि पिछले वर्ष हमारे मंच पर नव नालंदा महाविहार, नालंदा बिहार) के निदेशक प्रो. (डॉ.) सी. एस. उपासक जी पधारे थे, उन्होंने अपने ज्ञान वर्धक प्रवचन में बताया था कि मूलतः दीवाली बौद्धों का उत्सव है। यह उत्सव सम्राट अशोक द्वारा ८४ हजार धम्म कधों का उद्घाटनोत्सव मनाने के उपलक्ष्य में महोत्सव के रूप में मनाना आरंभ किया गया था। उद्घाटनोत्सव मनाने का स्पष्ट वर्णन दीपवंश नामक श्री. लंकाई ग्रंथ में उपलब्ध है। मगर डॉ. सी. एम. उपासक जी के संदर्भ में इन मित्रों के साथ हुई गोष्ठियों से स्पष्ट हुआ कि यह दिन कार्तिक अमावस्या का ही होना चाहिए।
यह बात सत्य है कि - भगवान बुद्ध के धम्म सेनापति मोग्गल्लान की निर्मम हत्या कार्तिक अमावस्या की काली रात को विकृत मानसिकता वाले ब्राह्मणों ने कर दी थी। तब से यह दिन बीदों के लिए शोक मनाने का काला दिवस बन गया था। हम सभी धन्यवादी हैं संसार के सबसे महान शासक सम्राट अशोक के कि उन्होंने अपने पराक्रम से इस शोक दिवस को 'गौरव दिवस' के रूप में बदल दिया।
प्रथम बार हमने इस महोत्सव को ब्राह्मणी पडयंत्रों को बेनकाब करने के उद्देश्य से अपने उत्सव के रूप में मनाने का निर्णय लिया। पहले हमने इस संबंध में पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखेसन २००६ में बुद्धचय प्रकाश नामक पुस्तक में भी उत्सवों की सूची में इसे शामिल कर लिया गया। इसी दौरान हमारे परम मित्र तत्वलीन श्रवण कुमार पिप्पल जी को जब इस अभियान का पता चला तो उन्होंने इस उत्सव को एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में समता बुद्ध विहार पर सन २००९ में मनाया था। यह कार्यक्रम बहुत अच्छी भावना के साथ मनाया। जाने लगा। कारण यह कि अशोक विजया दशमी की भांति ही यह प्रयास भी अपनी भूली बिसरी विस्मृत विरासत को पुनर्जीवित करने का सफल प्रयास माना जा रहा था। कहीं कोई समस्या नहीं थी। मगर सबसे अच्छी बात यह हुई कि समता बुद्ध बिहार से भी बड़े और तरीके से इस उत्सव का आयोजन जोहरीपुर, दिल्ली के युवा संगठन ‘भवतु सब्ब मंगल संघ' के समर्पित एवं बौद्ध धम्म के प्रति प्रतिबद्ध के द्वारा मनाया जाने लगा। गत वर्ष से जिन नगर - शहरों में ये उत्सव मनाया जा रहा है, उसी के बीच यह बहुत गर्व करने लायक बात है कि बनारस जैसे शहर में भी यह कार्यक्रम बहुत विशाल स्तर पर विश्व बौद्ध संघ द्वारा मनाया जाने लगा है। लगता है बहुत शीघ्र ही यह पर्व विशाल स्तर पर अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त कर लेगा।
हमें बहुत प्रसन्नता है यह जानकर कि बाबासाहेब की श्रद्धा सम्पन्न जनता ने अब अपनी विस्तृत विरासत को फिर से खड़ा करने का मानस बना लिया है। इसी कारण इस साल २०१० में इस महोत्सव को अनेक छोटे - बड़े शहरों में बौद्ध पद्धति के मनाए जाने के समाचार मिले हैं।
समस्या तब आई जब इस देश में बी.जे.पी. की केन्द्रिय सरकार बनी। केंद्र में बीजेपी की सरकार के बनते ही हमारे कई मित्र इस उत्सव को लेकर आग बबूला हो उठे। उनमें से एक मित्र ने तो एक बहुत विचित्र, गैर जिम्मेदार और अनापेक्षित ही नहीं बल्कि हमें चकित कर देने वाली एक पोस्ट पिछले वर्ष फेसबुक, व्हाट्सएप पर डाल दी। आप हमारे समाज का हाल जानते ही, प्रायः उनके अन्दर किसी मुद्दे की समीक्षा अथवा विश्लेषण करने की क्षमता या समझ तो होती नहीं। जब उन्हें कोई उलटी - सीधी पोस्ट नजर आती है तो वे उसे तुरंत ले उड़ते हैं। मिशन के लाभ - हानि का ख्याल किए बिना वे घोर नकारात्मक अभियान में जुट जाते हैं। इस पोस्ट के बाद क्या हुआ, जो बंधु शांति स्वरूप बौद्ध और सम्यक प्रकाशन से असहमत हैं, या नाराज हैं, या ईष्र्या करते हैं और उन्हें दीपदानोत्सव अथवा दीवाली से भी 'कोई लेना - देना नहीं है, वे केवल विरोध करने का सदु अवसर पाकर नकारात्मकता का नंगा नाच करने लगे। हमारे परम मित्र डॉ. परमानंद जी ने पहली पोस्ट दीपदानोत्सव के विरोध में गत वर्ष डाली थी। हमने तुरंत उनके साथ इस विषय में टेलीफोन पर लम्बी बातचीत की मगर इस वर्ष भी जो पोस्ट डाली है। उसके पहले पैराग्राफ में ही वे बौद्धिक विमर्श को महत्व न देते हुए लिख गए हैं कि, “इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बौद्धों ने दीवाली किसी भी रूप में नहीं मनानी चाहिए।" इन व्यक्तियों को पढ़कर हमें तालिबान की याद आ गई इसके पश्चात उन्होंने जो ११ विमर्श प्रस्तुत किए हैं वे सकारात्मक विमर्श करने के लिए नहीं अपितु अपने ही लागू करवाने के लिए दिए गए हैं। आओ हम बिन्दुवार उन पर नीरक्षीर विवेक के साथ विवेचन कर लेते हैं। अपनी विवेचनाओं से पूर्व हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि डॉ. आनंद जिस प्रकार के गैर जिम्मेदार प्रश्न कर रहे हैं, उनके उत्तर देने से और कई प्रकार की समस्याएं पैदा होंगी ही। मगर उन सबके कहलवाने के जिम्मेदार केवल और केवल डॉ. साहब ही होंगे।
वे लिखते हैं -
"दीपदानोत्सव का उत्सव यदि अशोक ने शुरू किया होता तो या बौद्ध परंपराओं के अस्तित्व में होता तो वह भारत के बाहर बीद्ध देशों , जैसे श्री. लंका, चाईना, जापान, इण्डोनेशिया आदि में आज भी पाया जाता। लेकिन ऐसा नहीं है। परंतु थाइलैण्ड में ब्राह्मणों की घुसपैठ के कारण वहां कुछ गिनेचुने बिहारों में ही गणपति और लक्ष्मी की मूर्ति भी बनाई गई है और दिवाली भी मनाई जाती है।"
डॉ. साहब आपको ज्ञात होना चाहिए कि - जब बौद्ध धर्म अपनी जन कल्याणी बुद्ध देसनाओं और कल्याणकारी कार्यों के कारण एशिया। भर में अपना प्रभाव स्थापित करने में सफल हुआ तो उस सफलता का एक कारण यह भी था कि बौद्ध धर्म ने उन देशों की परंपरागत रूप से स्थापित मान्यताओं और परंपराओं के साथ समन्वय पूर्ण सामंजस्य स्थापित किया था। इस कारण वहां बहुत सी बातें मूल बौद्ध धर्म की और बहुत सी बातें वहां की स्थानीय एक साथ मिलकर चलीं। और वहां सद्धम्म का एक अलग स्वरूप ही अस्तित्व में आया। यही कारण है कि विभिन्न बौद्ध देशों में बौद्ध धर्म का ब्राह्य रूप अलग अलग तरह का दृष्टिमान होता है। प्रत्येक देश का अपना - अपना कलैण्डर भी और वहां अंग्रेजी कलैण्डर भी काम करता है। इसलिए सभी देशों में बुद्ध जयंती भारत की साख पूर्णिमा को नहीं मनाई जाती है। की मदद लोगे तो पता चलेगा कि जापान में बद्ध पूर्णिमा फरवरी में मनाई जाती है। तिब्बत में बुद्ध पूर्णिमा हमसे एक माह बाद मनाई जाती है। आपने थाईलैण्ड में ब्राह्मणों की घुसपैठ का वर्णन करके उनके पराक्रम को तो स्वीकार कर लिया, मगर कोई घुसपैठ 'हमारा आर से करने का प्रयास होता है ता आप कुतकों पर उतर आते हैं।
अब आप विदेशों के हिसाब से ही अपना बौद्ध धर्म चलाने की इच्छा रखते हैं तो आज भी अधिकांश बौद्ध देशों में सम्राट अशोक को जानते तक नहीं, तो फिर दीपदानोत्सव की वहां पर तलाश करना तो सरासर बेमानी है। आओ! अब हम श्री. लंका चले चलते हैं। वहां पर प्राय: सभी बुद्ध विहारों के गेट पर एक "दवाय' स्थापित है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश की प्रतिमाएं स्थापित हैं। प्रत्येक श्रद्धालु बौद्ध उपासक इन ब्राह्मणी देवताओं को नमन करके ही बुद्ध विहार में प्रवेश करता है। क्या आप भारत में भी इस प्रयोग को दोहराएंगे। २६ मई १९५० से पहले सभी बीट देश का अपना अलग सर्वमान्य धम्मध्वज तक था। २५ मई १९५० को कोलंबो में आयोजित ‘वल्र्ड बुद्धिस्ट फेलो' के प्रथम अधिवेशन में बाबासाहेब की उपस्थिति में सर्व मान्य धम्म ध्वजके डिजाईन का ऐलान हुआ। इसके बारे में डॉ. साहब आप क्या कहेंगे।
श्री. लंका, चीन, जापान, ताईवान, थाईलैण्ड, तिब्बत, बम आदि विदेशों में यदि बौद्ध धर्म मजबूत स्थिति में है तो उसका कारण यह है कि इन बीद्ध देशों में कटिल ब्राह्मण नहीं हैं जो भारत की तरह षडयंत्र करके उसका पराभव कर सके। विदेशों में ब्राह्मण नहीं है इसी लिए वहा पर हिन्दू त्याहार भी नहीं हैं। पर किसी न किसी रूप में दीपदानोत्सव का पब माजूद है।
विदेशों में बौद्ध धर्म की बात छिड़ेगी तो हमें बताना पड़ेगा कि जापान, कोरिया, वियतनाम, फिलीपीन आदि देशों में मुर्दे को जमीन में गाड़ने की प्रथा है। बाबासाहेब ने स्वयं भी अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया है कि जन गणना उपायुक्त के अनुसार १९१० में अछूतों आदिवासियों में अपने मुर्दे जमीन में गाड़ने की प्रथा थी। यह उनके अछूत होने के दस कारणों से एक था। हमने ऊपर जो संदर्भ दिए, क्या डॉ. साहब अब यहां के बौद्धों में मुर्गों को जमीन में गाड़ने की प्रथा आरंभ करना चाहेंगे? डॉ. साहब आप अशोक शिला लेखों में अथवा अन्य प्राचीन साहित्य में दीपदानोत्सव के संदर्भ ढूंढ़ने के चक्कर में मृग मरिचिका के जाल में फंस गए हैं और यह भी भूल गए हैं कि हमारी सारी विरासत तो ब्राह्माणों ने पहले ही तबाह कर दी है। दूसरा आपको अपनी विरासत को लिपि बद्ध करने का काम भी यानी शिक्षा ग्रहण करने के काम पर भी कठोर प्रतिबंध लगाकर रोक दिया गया। आप हमें अशोक के ८१,००० स्तूपों का हवाला देकर बता रहे हैं कि उनमें कहीं भी दीपदानोत्सव का वर्णन नहीं है। डॉ. साहब हमें लगता है कि आपके पास अशोक के पूरे के पूरे ८४,००० स्तूपों और शिलालेखों का ब्योरा उपलबध है। कृपा करके पहले आप हमें यह रिकॉर्ड उपलब्ध कराइए हम आपके प्रति मनपूर्वक धन्यवादी होंगे।
हमारे प्रिय मित्र डॉ. साहब ने डॉ. राहुल राज (प्राचीन इतिहासकार, हिन्दू विश्वविद्यालय बनारस) के सभी तर्कों को यह कहकर काट दिया कि मन ये सभी ग्रंथ पढ़ हैं, इनमें कहीं भी दीपदानोत्सव का वर्णन नहीं है। मगर डा. साहब अपनी पोस्ट में दीपदानोत्सव को ब्राह्मणों का त्योहार बता रहे हैं। वाल्मीकिय रामायण के अनुसार न तो आश्विन माह में रावण का वध हुआ और न ही कार्तिक अमावस्या को राम का अयोध्या आगमन हुआ, तो फिर यह दिन ब्राह्मणों की दीवाली एक षड़यंत्र मात्र है। ये बातें हम इसलिए प्रस्तुत कर रहे हैं कि जब सीधे - सीधे सबूत नहीं। मिलते तो परिस्थिति जन्य साक्ष्यों की मदद ली जाती है। लोकोक्तियों और मौखिक इतिहास का भी सहारा लिया जाता है।
हमारे ये मित्र तथ्यों को नकारते ही नहीं रहे हैं। उन्होंने अशोक विजयादशमी के समर्थन में अपनी ओर से हमसे पूछे बिना शाहवाज गढ़ी (अब पाकिस्तान मेंके अशोक शिला लेख का संदर्भ अपनी पोस्ट के प्रथम बिंदु के अंत में दिया है। हमें इस संदर्भ से कोई आपत्ति नहीं है, ऐसे और भी संदर्भ हमें देने चाहिएं और आदोलन की सफलता के लिए बिना नाक - मुंह सिकोड़े उनका सम्मान भी करना चाहिए। केवल चाहिए ही नहीं, अपितु इस संदर्भ का हम लाभ उठाना भी चाहेंगे। मगर डॉ. साहब ने अपनी पोस्ट के माध्यम से इस विमर्श की गरिमा को इतना नीचे गिरा दिया है, जिस कारण हमें इस विषय में न चाहते हुए भी उनसे यह पूछना पड़ रहा है कि -
१) धम्म विजय दिवस हमारे अनुसार अशोक विजयादशमी को कहा जाता है। आपने इसके समर्थन में शाहबाज गढ़ी के शिला लेख का संदर्भ दिया है। हमारे अनुसार शाहबाज गढ़ी में चौदह शिलालेख हैं। आपको कृपा करके इतना तो बताना चाहिए था कि आप जो संदर्भ दे रहे हैं, वह किस नम्बर के शिला लेख में है। खैर हमने इन शिला लेखों को ठीक से पढ़कर जो पाया है, वह यह है कि शाहबाज गढ़ी ले चतुर्थ शिला लेख का पाठ युक्ति संगत हो सकता है, जो निम्नवत है।
• शाहबाज गढ़ी का चतुर्थ शिलालेख :
अतीत काल में कई सी वर्षों से प्राणियों का वधजीवों की हिंसा बंधुओं का अनादर तथा श्रमणों और ब्राह्मणों का अनादर बढ़ता ही गया। पर आज देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्माचरण से युद्ध का) भेरा घोप धर्मघोष में बदल गया है। देवविमान, हाथी, (नरक - सूचक) अग्नि की ज्वाला और अन्य दिव्य दृश्यों के प्रदर्शनों द्वाराजैसा पहले कई सी वर्षों से नहीं हुआ था, वैसा आज (हो रहा है) देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्मानुशासन से प्राणियों की अहिंसा, जीवों की रक्षा, बंधुओं का आदर, ब्राह्मणों और श्रमणों का आदर माता पिता की सेवा तथा बूढ़ों की सेवा बढ़ गई है। यह तथा अन्य प्रकार का धर्माचरण बढ़ा है। इस धर्माचरण को देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा और भी बढ़ाएंगे। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पुत्रनाती। (पोते, परनाती) परपोते इस धमचरण को कल्प के अंत तक बढ़ाते रहेंगे और धर्म तथा शील का पालन करते हुए धर्म के अनुशासन का प्रचार करेंगे। क्योंकि धर्म का अनुशासन श्रेष्ठ कार्य है। जो शीलबान नहीं हैं वह धर्म का आचरण भी नहीं कर सकता। इसलिए इस (धर्माचरण) की वृद्धि करना तथा इसकी हानि न होने देना अच्छा है। लोग इस बात की वृद्धि में लगें और इसकी हानि न होने दें, इसी उद्देश्य से यह लिखा गया। राज्याभिषेक के बारह वर्ष बाद देवताओं के प्रिय प्रियदर्श राजा ने यह लिखवाया।
उक्त लेख में अशोक विजयादशमी अथवा डॉ. साहब के अनुसार धम्म विजयादशमी दिवस का कहीं उल्लेख नहीं है। सम्राट केवल इतना कह रहे हैं कि आज देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के धर्माचरण से युद्ध का) मेरघोप धर्मथोप में बदल गया। डॉ. साहब कृपया बताने का कष्ट करें कि इसमें क्या कोई अंग्रेजी तारीख या देसी तिथि दी गई है। यदि कोई तिथि नहीं दी गई, मगर क्योंकि यह आपकी कल्पना है, इसलिए यह हर तराक से ठीक है। अगर ऐसी कल्पना और कोई करता है तो आप उसे ब्राह्मणों का पिट्टू कह देते हो । यह क्या मजाक है? आपने अशोक विजयादशमी का अशोक शिला लेख में संदर्भ ढूंढ़ निकाला। इसके लिए आपको बधाई। पर यह बताओ कि आप जो दीवाली - दीवाली चिल्ला रहे हैं, वास्तव में आप दीवाली के बहाने हमारे महान उत्सव दीपदानोत्सव के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पड़े हुए। हो? भोले भाले समाज को कुशल नेतृत्व की जरूरत है। अनावश्यक कुतर्कों की नहीं।
२) डॉ. साहब कहते हैं - “दीपदानोत्सव के विषय में किताब लिखने वाले लेखकों से उन्होंने बात की तो पता चला कि उनके पास इस बात का कोई संदर्भ नहीं है। उनके इस कथन से सिद्ध हो गया कि वे अपने घर में तैयार वालों को भी दूसरों के सिर पर मढ़ देते हैं।"
सुनिए हमारा तर्क डॉ. साहब बार - बार दीपदानोत्सव को ब्राह्माणों का त्यौहार - ब्राह्मणों का त्यौहार बता रहे हो। एक बार और बता दें कि वाल्मीकिय रामायण के अनुसार न तो आश्विन माह में रावण का वध हुआ और न ही कार्तिक अमावस्या को राम का आगमन हुआ, तो फिर यह दिन ब्राह्माणों की दीवाली कैसे हो गया? यह ब्राह्मणों का षड़यंत्र मात्र है। यह खुशी की बात बिल्कुल भी नहीं है कि हमारे मित्र डॉ. साहब भी इसी पडयंत्र (को अपना अंधा समर्थन देकर आनंद मना रह हैं।
धम्म पदाचार्य आंबेडकरी बौद्ध जगत के मूर्धन्य साहित्यकार धम्म पदाचार्य भद्रशील रावत जी की स्थापना है कि 'विजयदशमी (दशहरा) और दीपावली का राम - रावण से कोई संबंध नहीं है।' हम उनके इस ऐतिहासिक आलेख को विषय विस्तार के लिए क्षमा याचना सहित अपने धर्म बंधुओं के ज्ञान वर्धन के लिए जस का तस प्रस्तुत कर रहे हैं।
"भारत वर्ष के उत्तरांचल में आश्विन शुक्ल पक्ष दसवीं को रावण वध किया जाता। है, जो पूर्णतः गलत है। महर्षि वाल्मीकि अपने महाकाव्य में रावण का वध चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस्या को करवाते हैं। चैत्र की अमावस्या को मारा गया रावण आश्विन मास की विजयादशमी को नहीं मारा जाना चाहिए। वास्तव में यह इसलिए मारा जाता है, क्योंकि लोग वाल्मीकीय रामायण का बुद्धि पूर्वक अध्ययन नहीं करते। आश्विन मास में रावण को मार कर लोग ब्राह्मण ऋषि वाल्मीकि के साथ विश्वास घात करते हैं, जो नहीं किया जाना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में दसरथ पुत्र रामचन्द्र का राज्याभिषेक चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी छठी को होना था, किन्तु राम का राज्याभिषेक तो दूर उन्ह कैकेई क दुराग्रह क कारण १४ वर्ष के लिए वनवास पर जाना पड़ा।
श्रीमानयं मासः पुण्यः पुष्पित काननः ।
यौबराज्याय रामस्य सर्वमेवोषकल्यता ।।
(अयोध्या काण्ड सर्ग ३ श्लोक से)
अर्थ -
यह चैत्रमास बड़ा सुन्दर और पवित्र , इसमें सारे वन उपवन खिल उठे हैंअतः इस समय श्रीराम का युवराज पद पर अभिषेक करने के लिए आप लोग सब सामग्री एकत्र कराइए।
श्व एव पुष्यो भविता श्वोभिषेव्यस्तु मे सुतः ।
रामो राजीवपत्रो युवराज इति प्रभुः ।।
(अयोध्या काण्ड सर्ग ए, श्लोक २)
अर्थ -
दसरथ ने मंत्रियों के साथ सलाह करके यह निश्चय किया कि कल ही पुष्य नक्षत्र होगा, अतः कल ही मुझे अपने पुत्र राम का युवराज के पद पर अभिषेक कर देना चाहिए।
अघ चन्द्रोच्युषगमत पुष्यात् पूर्व पुनर्वसु ।
श्वः पुष्ययोग नियत वक्ष्यन्ते दैव चिन्तकाः ।।
(अयोध्या काण्ड सर्ग, श्लोक )
अर्थ -
आज चन्द्रमा पुष्य से एक नक्षत्र पहले पुनर्वास पर विराजमान है, अतः निश्चय ही कल वे युष्य नक्षत्र पर रहेंगे ऐसा ज्योतिषी लोग कहते हैं।
"योग्य पाठको! वाल्मीकीय रामायण के अनुसार राम का राज्याभिषेक चैत्र मास में ऐसी तिथि को होना था, जिस दिन पुष्य नक्षत्र पड़ रहा था। सभी जानते हैं कि राम को अगले दिन राज्याभिषेक के स्थान पर १४ साल के लिए वन को जाना पड़ा। भरत राम को लौटाने गयेलेकिन राम लोटने को तैयार नहीं थे, तो भरत ने राम के समक्ष ही भीषण प्रतिज्ञा की -
चतुदर्शी हि सम्पूर्ण बर्बठ्हनि पूनम ।
न लक्ष्यामि यदि त्वां तु प्रवेक्ष्यामि हुताशन ।।
(अयोध्या काण्ड सर्ग ११२, श्लोक २५)
अर्थ -
हे राम! यदि चौदह वां वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपका दर्शन नहीं मिलेगातो मैं जलती हुई ज्वाला आग में प्रवेश कर जाऊंगा।
"भरत की यह प्रतिज्ञा राम हमेशा याद रखते थे। राम तेरह वर्ष तक तो सही सलामत रहे। चीदहवां वर्ष लगते ही उनके सामने परेशानियां आने लगीं। अतः चौदहवें वर्ष में रावण द्वारा सीता का अपहरण किया गया। राम, लक्ष्मण सीता को खोजते - खोजते जाब सुग्रीव के यहां पहुंचे उस समय वर्षा प्रारंभ हो चुकी थी। वाली का वध करने के बाद वे चार महीने सुग्रीव के राज्य में ही रहे।
किष्किंधा काण्ड के सर्ग ३० श्लोक ६४ में राम कहते हैं। में सीता को न देखने के कारण शोक से संतप्त हो रहा , अतः ये वर्षा के चार महीने मेरे लिए सौ वयों के समान बीते हैं।" इसी सर्ग ८० के श्लोक ७८ में वे कहते हैं - "सुग्रीव ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वर्षा का अंत होते ही सीता की खोज आरंभ कर दी जाएगी किन्तु वह क्रीड़ा विहार में इतना तन्मय हो गया है कि इन बीते हुए चार महीनों का उसे पता ही नही है।" सुग्रीव अंगद हनुमान को दक्षिण में भेजता है। अंगद हनुमान आश्विन मास के बीतते बीतते दक्षिण की ओर गए थे। एक महीना व्यतीत हो गया लेकिन वे सीता की खोज नहीं कर पाए। अंगद हनुमान कहने लगे -
शासनात् कपिराज्यस्य वयं सर्वे विनिर्गतान।
मास पूर्णा बिलास्थानां हरयः कि न बुध्यत ।।
वयं माश्व युजे मासित काल संख्या व्यवस्थिताः ।।
प्रख्थिताः सोनुषिचातीतः किमतः कार्यमुत्तरम् ।।
(किष्किन्धा काण्ड सर्ग ५३, श्लोक - ९)
अर्थ -
वानरो! हम सब लोग वानरराज की आज्ञा से आश्विन मास बीतते बीतते एक मास की निश्चित अवधि स्वीकार करके सीता की खोज के लिए निकले थे, किन्तु हमारा वह एक मास उस गुफा में ही पूरा हो गया। क्या आप लोग इस बात को नहीं। जानते हम जब चले , तब से लौटने के लिए जो मास निर्धारित हुआ था, वह भी बीत गया अतः अब आगे क्या करना चाहिए।
"उपर्युक्त अंश में यह स्पष्ट कहा गया है कि अंगद हनुमान आदि बानर सीता की खोज करने के लिए आश्विन मास के अन्त में चले थे। जब कि हिन्दू लोग तो रावण का वध ही आश्विन मास में कर देते हैं। वानर चिन्तित थे कि अब बसंत का महीना आना चाहता है। हनुमान सीता के पास जब पहुंचते हैं, तो सीता सुन्दर काण्ड सर्ग ९७ श्लोक ८ में हनुमान से कहती है, बानर! यह दसवां महीना चल रहा है। अब वर्ष पूरा होने में दो मास शेष हैं। निर्दयी रावण ने मेरे जीवन के लिए जो अवधि निश्चित की है, उसमें इतना ही समय बाकी रह गया है। सीता हनुमान के माध्यम से राम के लिए एक संदेश भेजना चाहती है। सुन्दर काण्ड सर्ग ४० श्लोक १० में सीता कहती हैं, "राजकुमार! शसूदन! मैं आपकी प्रतीक्षा में किसी तरह एक मास तक जीवित नहीं रह सकुंगी।
"इसके बाद राम रावण पर आक्रमण करते हैं। मेघनाद का वध होता है। मेघनाद क वध से दुखी होकर रावण सीता का वध। करना चाहता है। रावण को रोकते हुए सुपाश्र्व कहता है -
कवं नाम दशग्रीव साक्षाटूश्रवणानुज ।
हन्तुमिति वैदेहीं क्रोघा धर्ममपास्य च ।।
(युद्ध काण्ड सग ९२ लाक ६५)
अर्थ -
महाराज रावण ! तुम तो साक्षात कुबेर के भाई हो, फिर क्रोध के कारण धर्म को तिलांजलि देकर (छोड़कर) सीता के वध की इच्छा कैसे करते हो?
वेदविद्यावतस्नातः स्वकर्मनिरस्तथा ।
स्त्रियः कस्सा बवं बीर मन्यसे राक्षसेश्वर ।।
(युद्ध काण्ड सर्ग ९९ श्लोक ६४)
अर्थ -
वीर राक्षस राज! तुम विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेद बिया का अध्ययन पूरा करके गुरुकुल से स्नातक (Graduate) होकर निकले थे और तब से सदा अपने कर्तव्य के पालन में लगे रहे तो भी आज अपने हाथ से एक स्त्री का वध करना तुम कैसे ठीक समझाते हो?
अभ्युत्थान त्वमव कृष्णपक्ष चतुर्दशी ।
कृत्वा नियढमावस्यां विजयाय बलैबृत ।।
(युद्ध काण्ड सर्ग ९२ लाक ६६)
अर्थ -
आज कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (चौदस) है। अतः आज ही युद्ध की तैयारी कर कल अमावस्या के दिन सेना के साथ विजय के लिए प्रस्थान करो।
नैब रात्रि न दिवस न मुहुर्त न च क्षणम् ।
रामारावणयो युद्ध विरामधुपगच्छाति ।।
(युद्ध काण्ड सर्ग, १०७ श्लोक ६६)
अर्थ -
राम और रावण का वह युद्ध न रात में बन्द होता था और न दिन में। दो घड़ी अथवा एक क्षण के लिए भी उसका। विराम नहीं हुआ और अमावस्या के दिन मातलि द्वारा याद दिलाए जाने पर ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अगस्त्य ऋषि द्वारा प्रदत्त बाण के प्रहार से वध कर दिया।
स शरा रावण हत्या रुधिराई कृतच्छविः।
कृतवर्मा निवृतवत् स तूतें पूनराविश ॥
(युद्ध काण्ड सर्ग, १०८ श्लोक २०)
अर्थ -
इस प्रकार रावण का वध करके खून से रंगा हुआ, वह शोभाशाली बाण अपना काम पूरा करने के बाद पुनःविनीत सेवक की भांति रामचन्द्र के तरकश में लौट आया।
विद्वान पाठक गण! जरा सोचिए कि - रावण राम की पत्नी सीता का वध करना चाहता है, उस दिन चैत्र मासी चौदस थी लेकिन सुपाश्र्व के समझाने पर अगले दिन चैत्र मास की अमावस्या को रावण राम से लड़ने जाता है और रात दिन के संघर्ष में रावण राम के द्वारा ऋषि अगस्त्य द्वारा प्रदत बाण से मारा जाता है। रावण का दाह संस्कार करने के बाद राम अयोध्या आने की तथा भरत के संकल्प की चिन्ता करने लगते हैं। युद्ध काण्ड सर्ग १२१ श्लोक ७ में वे विभीषण से कहते हैं, “अब तो तुम इस बात की ओर ध्यान दो कि हम किस तरह जल्दी से जल्दी अयोध्यापुरी (को लौट सकेंगे। क्योंकि वहां तक पैदल यात्रा करने वाले के लिए यह मार्ग बहुत ही दुर्गम है।"
राम के ऐसे कहने पर विभीषण ने उत्तर दिया - "राज कुमार! आप इसके लिए चिन्तित न हों। मैं एक ही दिन में आपको उस पुरी (नगर में पहुंचा ढूंगा।" (सर्ग १२१, श्लोक ८) पुनश्व सर्ग १२१ श्लोक ९ में विभीषण आग्रह करता है, "मेरे यहां मेरे बड़े भाई कुबेर का सूर्य समान तेजस्वी पुष्पक विमान मौजूद है, जिसे महाबली रावण ने संग्राम में कुबेर को पराजित करके छीन लिया था।
चैत्र मास वसंत का महीना माना जाता है, जिसमें सारी प्रकृति में सुन्दरता ही सुन्दरता दिखाई देती है। राम पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या को चले। मार्ग में चैत्र मास की छाई सुन्दरता का वर्णन करते हुए राम सीता को स्थानों का निरीक्षण करा रहे।
"यही पंपा नामक पुष्करणी है जो तटवर्ती विचिन काननों (उद्यानोंयगीचों) से सुशोभित हो रही है। यहां तुम्हारे वियोग से अत्यन्त दुखी होकर मैंने विलाप किया था।" यद्ध काण्ड सर्ग १२३ श्लोक ४०, पुनश्च इसी सर्ग १२ के श्लोक ५२ से ५८ में वे सीता से कहते हैं - “हे मिथिलेश कुमारी। यह काननों से शोभित रमणीय यमुना नदी दिखाई देती है और यह शोभाशाली भारद्वाज आश्रम दृष्टि गोचर हो रहा है। ये पुण्य सलिला त्रिपथगा गंगा नदी दीख रही है। जिन के तट पर नाना प्रकार के पक्षी कलरव (चह चाहट) करते हैं और ब्राह्मण गण कमों में रत हैं। इनके तटवर्ती वन के वृक्ष सुन्दर फूलों से भरे हुए हैं।
"चैत्र मास की सुन्दरता का दृष्य (नजारा) दिखाते हुए राम चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी के दिन भारद्वाज मुनि के आश्रम में उतर कर उन्हें प्रणाम करते हैं -
पूर्ण चतुदरों वर्ष पंचयां लक्ष्मणाग्रजः ।
भरद्वाजाश्रम प्राप्य बबन्दे नियतो मुनिम् ॥
(युद्ध काण्ड सर्ग १२१, श्लोक १)
अर्थ -
रामचन्द्र ने चौदह वर्ष पूर्ण होने पर पंचमी श्लोक तिथि को भारद्वाज आश्रम में पहुंचकर मन को वश में रखते हुए मुनि को बंद (प्रणाम) किया।
"चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी को आश्रम में उतर कर राम ने विचार किया कि - आज ही चौदह वर्ष का अंतिम दिन है। भरत के सकल्प का याद करक उन्हान साचा कि यदि आज भरत को मे आगमन की सूचना नहीं मिली तो वह आत्मदाह कर लेगा। अत उन्होंने युद्ध काण्ड सर्ग १२५ श्लोक ८ में हनुमान से कहा - "कपिश्रेष्ठ! तुम शीघ्र ही अयोध्या जाकर पता कर लो कि राज भवन में सब लोग सकुशल तो हैं न।" और कहना, "वे (राम) प्रयाग में हैं और भारद्वाज मुनि के कहने से उन्हीं के आश्रम में आज पंचमी की रात बिताकर कल उनकी आज्ञा से वहां से चलेंगे। तुम्हें यहीं राम का दर्शन होगा।" (सर्ग १२५, श्लोक २४) हनुमान उसी समय उड़े और भरत के पास जा पहुंचे। वाल्मीकि रामायण युद्ध काण्ड सर्ग १२६ श्लोक ५४ में हनुमान भरत से कहते - "हे भरत: किष्किंधा से गंगा तट पर आकर वे प्रयाग में भारद्वाज मुनि के समीप ठहरे हुए हैं। कल पुष्य नक्षत्र के योग में आप किसी विघ्न बाधा के राम का दर्शन करेंगे।
विद्वान पाठको! जरा सोचिए कि - राम वन को कौन से मास में गये ? उत्तर है चैन मास में उनका राज्याभिषेक कौन से नक्षत्र में होना था। उत्तर है पुष्य नक्षत्र में उनको चौदह वर्ष कब पूर्ण होंगे? उत्तर है चैत्र मास में ही रावण की मृत्यु कीन से महीने में हुई? उत्तर है चैत्र की अमावस्या को। रावण वध के बाद प्रयाग में राम कान सी तिथि को आये? उत्तर है चैत्र शुक्ल पक्ष पंचमी को। राम भरत से कौन सी तिथि तथा कोन से नक्षत्र में मिले? उत्तर है - चैत्र शुक्ल पक्ष की छट और पुष्य नक्षत्र का अतः रावण का वध चत्र मास की अमावस्या का होना चाहिए न कि आश्विन शुक्ल पक्ष दसवीं को, तो फिर हिन्दू लोग विजयादशमी और दीपावली का संबंध राम से क्यों मानते हैं? उत्तर है क्योंकि वे अंध विश्वासी, परंपरावादी एवं रूढ़िवादी हैं। वे सदा ही सत्य बातों से परहेज करते हैं।
"वास्तव में विजयादशमी तथा दीपावली का राम से कोई संबंध नहीं है। चैत्र मास से लगभग आठवें महीने में दीपावली का पर्व आता है। राम इन आठ महीनों में क्या करते रहे? हिन्दुओं का यह मानना तर्क संगत नहीं है कि राम दीपावली के दिन अयोध्या आये थे। विजयादशमी का सीधा संबंध सम्राट अशोक से है। आज ही के दिन ईसा पूर्व २६१ में कलिंग विजय करने के बाद अशोक ने घोषणा की थी मैं आने वाले समय में विजय हेतु हथियार नहीं उठाऊंगा। हिंसा के स्थान पर अहिंसा का पालन करूंगा। क्योंकि इस कलिंग युद्ध में भीषण मार काट हुई है। लाखों नरनारा मार गये हैं। लाखों बंदी बनाए गये हैं। मैं भगवान बुद्ध की शरण में जाता हूं तथा मैं जीवन पर्यन्त धम्म राज्य का संचालन करेगा। उसी समय से बौद्ध जगत में इसे क्षत्रियों का पर्व माना गया है। यह विजयादसमी बौद्धों की ह, सम्राट अशोक बोद्ध था। १४ अक्टूबर १९५६ को विजयादशमी के ही दिन बोधिसत्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी ने सात लाख दलित अनुयायियों सहित बौद्ध धर्म अपना लिया था। हिन्दुओं की अमानवीय यातना एवं जुआत के कारण बाबासाहेब ने १३ अक्टूबर १९३५ को घोषणा की थी कि ये मेरा दुर्भाग्य था कि - मैं हिन्दू पैदा हुआ, किन्तु मैं हिन्दू रह कर मरुंगा नहीं। इक्कीस वर्ष के सतत अध्ययन और प्रतीक्षा के बाद ११ अक्टूबर १९५६ विजयादसमी यानी अशोक धम्म दसमी को वे बौद्ध हो गये। इसी प्रकार दीपावली से भी राम का दूर से भी संबंध नहीं है। यह ऋतु पर्व है। भगवान बुद्ध के समय यह यक्ष रात्रि के नाम से मनायी जाती थी जो अब आते आते लक्ष्मी पूजा में बदल गई है। विद्वानों एवं राम लीलाओं व्यवस्थापकों से निवेदन है कि वे अपनी भूल पहचानें और इस दिन यानी विजयादसमी के दिन त्रिरत्न की शरण में आकर सम्राट अशोक एवं बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के पद चिह्नों पर चलें।
उक्त आलेख पर यदि किसी को संदेह सताने लगे तो वह स्वयं अपनी आर से वाल्मीकिय रामायण का अध्ययन करके सत्यता को जान सकता। कृपया ध्यान दें कि हमारे जिन मित्रों को दीवाली का कार्तिक अमावस्या के साथ किसी प्रकार का संबंध न होने के बारे में और जाने की जिज्ञासा है तो वे "अलबरूनी का भारत" नामक पुस्तक में समाहित इतिहास का अध्ययन करें। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रसिद्ध इतिहासकार एवं शुरुआती मुसलमान यात्री अलबरनी (४,५ सितंबर ९७३ - १३ दिसम्बर १०४८) जब भारत की यात्रा पर आया। तो उसने पाया कि कार्तिक अमावस्या के दिन एक ऋतु पर्थ मनाने का प्रचलन भारत में मौजूद है। मगर उन्होंने यह कतई नहीं लिखा है कि इस पर्व का किसी भी प्रकार से दशरथ पुत्र राम के साथ कोई संबंध है।
इस संदर्भ में अलबेरूनी के शब्दों का अवलोकन अपेक्षित है। वे लिखते हैं -
"कार्तिक की पुली पहली, या अमावस्या का दिन, जब सूर्य तुला राशि में जाता है, दीवाली कहलाती है। तब लोग स्नान करते आमोद के वस्त्र पहनते एक दूसरे को पान और सुपारी उपहार देते हैं, वे सवार होकर दान देने के लिए मन्दिरों को जाते। और दोपहर तक एक दूसरे क साथ हर्ष से खेलते हैं। रात को वे प्रत्येक स्थान में बहुत बड़ी संख्या में दीपक जलाते, जिससे वायु पूर्ण रूप से निर्मल हो जाती है। इस पर्व का कारण यह है कि वासुदेव की स्त्री, लक्ष्मी, विवोचन के पुत्र, बलि, को जो सातवें पाताल में बन्दी है चप मी एक बार बन्धन मुक्त करती और ससार में जाने की आज्ञा देती है। इसलिए यह त्योहार बलिराज्य अर्थात बलि का आधिपत्य, कहलाता है। हिन्दू कहते हैं कि कृतयुग में यह समय सामाग्य का समय था, और वे प्रसन्न होते क्योंकि प्रस्तुत उत्सव का दिन कृतयुग के उस समय के सदृश है।
मगर यह बात विशेष चौंकाने वाली है कि अलवेनी जी ने इसी पुस्तक में अहोई देवी की पूजा के बारे में स्पष्ट लिखा है कि इस देवी का सीधा संबंध सम्राट अशोक से होता हे। अलवरूनी के भारत में न तो दशहरे का कोई वर्णन है और न ही रामलीलाओं का स्पष्ट है। कि अलवनी के भारत भ्रमण के समय तक भारत के इतिहास से कटिल ब्राह्मणों ने सम्राट अशोक के नाम को लगभग पूरी तरह पौंछ कर रख दिया। मगर इस तथ्य से यह भी स्पष्ट होता है कि अलवनी के बाद किसी समय राम को कार्तिक अमावस्या के ऋतु पर्व से जोड़कर दीवाली का पर्व ब्राह्मणों ने हिन्दू पर्व के रूप में गढ़ लिया यहां पर हमें ब्राह्मणा के बारे में बाबासाहेब द्वारा कही गई बात सदा याद रखनी चाहिए। वे कहते एक इंसान कुछ इंसानों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकता है, लेकिन एक इंसान सब लोगों को सब समय के लिए मूर्ख नहीं बना सकता। बाबासाहेब अपने शिष्यों को सचेत करते हुए इसी ग्रंथ में आगे कहते हैं - "प्राचीन भारत के इतिहास से पर्दा हटाया जाना आवश्यक है। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो प्राचीन भारत इतिहास विहीन हो जाएगा। यह संयोग है कि भारतीय बौद्ध साहित्य की मदद से प्राचीन इतिहास को उस मलबे से खोदकर निकाला जा सकता है, जिसके नीचे ब्राह्मण लेखकों ने अपने उन्माद में उसे दफन कर दिया है। बौद्ध साहित्य उस मलबे को हटाने में व उसके नीचे छिपे तथ्यों को बिलकुल स्पष्ट रूप से देखने में हमारी सहायता करता है।
बाबासाहेब की उक्त चेतावनी के मद्देनजर यदि हम अपने भूले बिसरे उत्सवों बुद्ध बिहारों और संस्कारों को पुन स्थापित करते हैं तो कम से कम हमारे अपने विद्वानों को तो उसमें नुक्ता चीनी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उस काम को गति देने के लिए एक साथ आगे बढ़ाना चाहिए। आज जो ईमानदार और समर्पित बौद्धजन अपनी गौरव शाली बौद्ध विरासत को ब्राह्मणों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए दीपदानोत्सव आदि संस्कारों के माध्यम से अपनी गौरव शाली संस्कृति को पुन र्जीवित करने के लिए दिन रात परिश्रम कर रहे, ये उत्साही साथी कोटि - कोटि साधुवाद के पात्र हैं। उससे आज नहीं तो कलकल नहीं तो परसोंचाहे लग जाएं बरसोंहम बाबासाहेब के अरमानों के अनुरूप भारत वष को बुद्धमय बना कर ही दम लेंगे। 'दीपावली' शब्द को ही लोगबाग दीवाली कहने लगे हैं। ‘दीपावली शब्द २ शब्दों से मिलकर बना है। दीप + अवली का अर्थ होता है दीपक, दीया अथवा चिराग। इसी प्रकार अवली का अर्थ होता है पंक्ति, कतार इस संबंध में चार वेदों के सफल अनुवादक स्वनाम धन्य संस्कृत विद्वान व भारत विद ऋग्वेद के अनुवादक, होने के नाते अपने अनुवादकीय के तौर पर अपनी बात लिखते समय डॉ. साहब का बहुत चौंकाने वाला तथ्य प्रस्तुत करते हैं। यह सत्य तथ्य इस प्रकार है।
अपनी बात समाप्त करने से पहले मैं यह कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं कि ऋग्वेद की एक बात ने मुझे बहुत चकित किया है, उन्नत समाज, विचारशील लोगों एवं सभ्य परिवारों की सभी सामग्री का उल्लेख होते हुए भी कहीं भी दीपक अथवा किसी कृत्रिम प्रकाश साधन का नाम नहीं मिला।
अब इस युग के परमानन्दों को नीर क्षीर विवेक के आधार पर यह निर्णय लेना चाहिए कि जब दशहरा - दीवाली का कार्तिक अमावस्या से दूर दूर का भी कोई संबंध सिद्ध नहीं होता है तो यह बात अपने आप सिद्ध हो जाती है कि यह वास्तव में एक बौद्ध महोत्सव हैजिस पर ब्राह्मणों ने प्रतिक्रांति के तहत वृहद्रथ मौर्य की हत्या करके बौद्धों के साथ की गई नृशंस विध्वंस लीला के बाद कब्जा किया था। जब बुद्ध से पूर्व अथवा वेदिक काल में ‘दीप’ जैसी किसी वस्तु अथवा कृत्रिम प्रकाश का कोई वर्णन ही नहीं मिलता है तो डाँ. पता नहीं क्यों बिना बांस की बांसुरी बजाने पर तुले हुए हैं। दूसरी ओर संपूर्ण त्रिपिटक बौद्ध साहित्य में दीप, दीपक, प्रदीप शब्दों की भरमार है। इसे कहते हैं जिसका बाप जिंदा हो, उसे कोई हरामी कैसे कह सकता है?
यह बात ठीक है कि मिलिन्द पह के अनुसार विद्वान लोग सद्धम्म के लिए वरदान सिद्ध हो सकते है, पर हमारा अनुभव कहता है कि - यदि विद्वान नकारात्मक सोच पर सवार हो जाएं तो उसका बेड़ा गर्क भी कर सकते हैं। मगर बीएचयू के डॉ. राहुल राज पर हमें गर्व कि वे और उनके बहुत से साथी, मान - अपमान की परवाह किए बगैर सद्धम्म के विकास में बेजोड़ भूमिका निभा रहे हैं। डॉ. साहब को यदि हर्षवर्धन कृत नागानंद में यदि कहीं दीपदानोत्सव का वर्णन नहीं मिला तो डॉ. राहुल राज को गालियां देने की बजाए उनके साथ सकारात्मक विमर्श स्थापित करना चाहिए था। मगर मैं सभी परमानंदों से एक बात जरूर कहना। चाहूंगा कि आज एक साधारण बौद्ध धर्मावलंबी भी जानता है कि प्रत्येक वर्ष (कार्तिक पूर्णिमा को प्रयाग इलाहवाद) में आयोजित होने वाला महाकुंभ नाम का विशाल आयोजन महाराजा हर्षवर्धन ने ही आरंभ किया था। आपको नागानंद अथवा बाण भट्ट बिरचित हर्ष चरितम कहीं कुम्भ के मेले का तो वर्णन मिला होगा। क्या आप में इतना दायित्व बोध है कि उस मेले को फिर से बौद्ध संस्कृति के अनुरूप पुनस्र्थापित कर सके आप तबाह कर दिए गए इतिहास में तो दीपदानोत्सव की तारीख ढूंढ़ रहे हैं मगर जिस 'महाकुंभ' नामक महोत्सव की तिथि और उसका इतिहास सर्वज्ञात है, उसे मनाने में आपका क्या संकोच है, महाकुंभ का महोत्सव ऐसा पर्व है जिसका वर्णन चीनी बौद्ध यात्रियों ने भी अपनी यात्रा विवरणों में वीद्ध उत्सव के रूप में दिया है।
बौद्ध धर्म में माह के आठ दिनों पर ‘उपोसथ' धर्म का पालन करने का विधान है। कार्तिक अमावस्या जिस दिन हम दीपदानोत्सव मनाते हैं, यह भी अमावस्या के दिन पड़ती है। यह उत्सव ‘उपोस धर्म का पालन करते हुए अगर एक महोत्सव के रूप में मनाया जाता है तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इस दिन हम लक्ष्मी, - गणेश, सीता - राम की पूजा नहीं करते बल्कि अशोक, आंबेडकर जी के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हैं। आपत्ति तो जब होनी चाहिए जब कोई इस दिन लक्ष्मी - गणेश की पूजा करे अथवा ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी जेब में अपना धन डाले। मगर डॉ. साहब अपनी पोस्ट से यही सिद्ध करना चाह रहे हैं जैसे कि इसे ब्राह्मणी तरीके से मनाया जा रहा है।
डॉ. साहब ने बिंदु नं. ७ में जो बात उठाई है उससे भी यही साबित होता है कि वे जबर्दस्ती दीवाली को ब्राह्मणों का उत्सव सिद्ध करने पर तुले हुए हे। बाबासाहब ने ब्राह्मणों की करतूतों से दुखी होकर इसी ग्रंथ के अगले पृष्ठों पर फिर कहा था - "प्राचीन भारत के इतिहास से पर्दा हटाया जाना चाहिए। इस उद्घाटन के बिना प्राचीन भारत इतिहास विहीन रह जाएगा। प्रसन्नता का विषय है कि बौद्ध साहित्य की मदद से प्राचीन इतिहास को उस मलबे से खोदकर निकाला जा सकता है, जिस मलबे के नीचे ब्राह्मण लेखकों ने पागलपन में उसे दबा दिया है। मलबे के इस उत्खनन से हम प्राचीन भारतीय इतिहास को नव प्रकाश में देख सकते हैं।
अगर हमारे समाज सेवी और विद्वान गण बाबासाहेब की भावना के अनुरूप अपने गौरव और विरासत को उजागर करने का काम करते में बढ़ - चढ़कर सहयोग करना चाहिए न कि बात बात में मामूली से मुद्दों को लेकर फेसबुक की तरफ दौड़ना चाहिए। आज हम बाबासाहेब के बच्चे इतने सक्षम हो गए हैं कि ब्राह्मणों द्वारा कार्तिक अमावस्या को दीवाली के रूप में मनवाना छुड़ा सकते हैं हम उदाहरण के रूप में नागपुर नगर और वहां के समर्पित नगर वासियों का नाम बहुत गर्व से बता सकते हैं। बाबासाहेब की १४ - १५ अक्टूबर की धम्म दीक्षा से पूर्व नागपुर नगर आर.एस.एस द्वारा की जाने वाली शस्त्र पूजा के लिए जाना जाता था। मगर बाबासाहेब की दीक्षा के मात्र ६० वर्ष पश्चात ही बाबासाहेब की धम्म दीक्षा वाले दिन यानी अशोक विजयादशमी के दिन पूरा नागपुर भीममय और बुद्धमय हो जाता है।
आज उनका शव पूजा का पर्व उनके मुख्यालय तक सिकुड़ कर रह गया है। मुझे लगता है जब हमारे लोग कार्तिक अमावस्या के दिन दीपदानोत्सव मनाने का विरोध करते हैं और दीवाली को ब्राह्मणों का उत्सव बताते नहीं थकते वास्तव में इस बात पर ब्राह्मण लोग ठहाका लगाकर हंसते होंगे कि अब हमें दीपावली को ब्राह्मणों का पर्व बताने के लिए जूझना नहीं पड़ेगाअब इन्हीं के समझदार लोग हमारा काम करने में जुट गए हैं। इस अवसर पर हम सभी मिलकर ईमानदाराना और एकजुट प्रयास करें तो हम भगवान बुद्ध, सम्राट अशोक और परमपूज्य डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की शानदार विरासत को पुन र्जीवित कर सकते हैं। सफलता हमारी एकता समर्पण और सामथ्र्य पर निर्भर करती है। यदि एसा हो गया तो नकार खाने में ब्राह्मणों की तूती सुनने वाला कोई नहीं मिलेगा।
हमारे पाठकों को यह बात अखर सकती है कि - यह पोस्ट कुछ अधिक लंबी हो गई। इस नाराजगी के पात्र हम नहीं, खुद डॉ. साहब जी हैं। जिन्होंने हमें इस लंबी पोस्ट को लिखने के लिए मजबूर कर दिया। इसी वजह से हम काफी कुछ जानते हुए भी इस पोस्ट को यहीं समाप्त करना चाहेंगे। मगर उनके सवालों का जबाव देने के लिए जितना जरूरी है, उतना तो दिया गया है। याद रहे झूठ तभी सत्य पर बाजी मार ले जाता है, जब सत्य मान रहता है।
डॉ. साहब गलत बयानी कर रहे हैं कि - उनके पास अशोकावदान के दो संस्करण हैं। तो क्या किसी के पास किसी पुस्तक के कई संस्करण होने से झूठ सत्य में बदल जाता है। दिव्यावदान नामक ग्रंथ जो श्री. लंका मूल का संस्कृत प्रय है। इस ग्रंथ में अशोक कालीन इतिहास प्रामाणिकता सहित उपलब्ध है। इस ग्रंथ का अभी तक हिंदी अथवा मराठी अनुवाद ही नहीं हुआ है। इस ग्रंथ में ८८ अवदान यानी ३८ अध्याय हैं, जिनमें से एक अवदान ‘अशोकावदान' भी है।
मराठी भाषा में दुर्ण भागवत द्वारा दिव्यावदान का अनुवाद अवश्य किया गया था, मगर यह अनुवाद संक्षिप्त है अकादमिक संसार में संक्षिप्त अनुवाद की कोई प्रामाणिकता नहीं मानी जाती। पाठक गण धैर्य रखें 'दिव्यावदान' का प्रामाणिक एव मुकम्मल हिंदी अनुवाद सम्यक प्रकाशन द्वारा लाया जा रहा है। डॉ. साहब ने आठवीं आपत्ति के तहत बताया है कि, ‘हम लोगों ने होली के दिन नजदीकी स्तूप लेणी, अशोक स्तंभ पर जाकर दिन भर धम्म गोष्ठि करना शुरू किया है। वे ऐसा होली पर होने वाली। हुल्लड बाजी से बचने के लिए करते और चूंकि होली फागुन पूर्णिमा के दिन पड़ने के कारण उपोसथ के दिन पड़ती है। इसलिए यह दिन उनके द्वारा उपोसथ धर्म का पालन करते हुए बौद्ध धार्मिक विधि से मनाया जाता है।
हम डॉ. साहब के इस प्रयास की न केवल प्रशंसा करते बल्कि उन्हें ढेर सारे साधुवाद भी देते हैं मगर डॉ. साहब के इस प्रयास से उनके चाल चरित्र का पता चलता है। यदि वे होली को अपने ढंग से मनाएं तो बहत श्रेष्ठ कार्य है और यदि हम दीपदानोत्सव को बौद्ध परंपरानुसार मनाएं तो हम ब्राह्मणों के पिछ कैसे हो गए? इस प्रवृत्ति से मिशन का कोई भला होने वाला नहीं है, बल्कि नुकसान ही होगा हमें अपने समाज को केवल भाषणों के सहारे नहीं रखना है। समाज को जीवंत बनाने के लिए हमें सांस्कृतिक विरासत को खोजना भी है और उसका नवनिमाण भी करना है। यह काम डॉ. साहब अडंगा लगाने से नहीं हागा। कहीं ऐसा न हो, अभी तक बौद्ध धर्म में हीनयान, महायान, तंत्रयान, वजवान, सौतांत्रिक, लामावाद आदी ही प्रचलित पंथ है, हमें अपनी ऊटप टांग पोस्ट के माध्यम से अडंगा यान खड़ा करने से बचना चाहिए। नाव बिंदु पर कुछ लिखने का मतलब अपने समय का दुरुपयोग करना है। आश्विन कार्तिक और शक संवत आर विक्रम संवत के विषय में डॉ. साहब भयंकर भ्रम के शिकार हैं। जब कि इस संबंध में उनके साथ गत वर्ष विस्तृत चर्चा भी हो चुकी है। हम जब कोई उत्सव मनाएंगे तो पंचशील के ध्वज का भी प्रयोग करेंगे और बुद्ध, अशोक, आंबेडकर के चित्र प्रतिमा का भी प्रयोग करेंगे।
वे हमारे धर्म ध्वज लेकर चलने पर अगर हंसते हैं तो यह उनकी समस्या है, हमारे संस्कारों की कमी नहीं। आप कहते - "खैर का हमें विरोध तो करना है" मगर हमारा कहना है कि हमें ब्राह्मणों को आश्विन - कार्तिक महीने में दशहरा - दीवाली मनाने से न केवल रोकना है, बल्कि उन्हें ये पर्व चैत क के महान में मनाने क लिए विवश करना हे। २५ दिसम्बर १९५४ को देहु रोड, पूना में बुद्ध प्रतिमा की स्थापना करते हुए एक संकल्प लिया था कि, "सिद्ध करके दिखा ढूंगा कि पंढरपुर का मंदिर कभी बुद्ध विहार था। बाबासाहेब अनेक जायज कारणों की वजह से यह कार्य अपने जीवन काल में पूरा नहीं कर पाए। तो क्या इस विषय पर कभी आपने कोई फेसबुक पर पोस्ट डाली है। लगता है नहीं डॉ. साहब कभी कभी तिरुपति बालाजी मंदिर को बुद्ध विहार सिद्ध करने की पोस्ट भी डाला करो। कभी कभी बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ को बुद्ध विहार सिद्ध करने के लिए भी फेसबुक पर आ जाया करो।
स्वामी विवेकानंद कह गए हैं कि - उड़िसा का जगन्नाथ मंदिर तो बौद्धों का है, कभी कभी उस पर भी अपनी कलम घिस लिया करो। दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों की विभिन्न जातियों को एक बाप की औलाद सिद्ध करने के लिए भी कभी कभी अपनी लेखनी का सदुपयोग कर लिया करो। यदि आप इस दिशा में कुछ करने का संकल्प लेते हैं, तो आपके इस काम में हम सबसे पहले सहयोग देने वाले होंगे। आईए! अगले वर्ष हम एक साथ मिलकर दीपदानोत्सव का पर्व मनाएं और ब्राह्मणवाद की कमर तोड़ने का काम करें।
भवतु सब्ब मंगल ।
• अधिक जाणकारी पाने के लिये नीचे दिया हुआ लिंक खोलवर देखीये. : https://youtu.be/P7uHRKfrZsI
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लेख -
शांती स्वरूप बौद्ध : दिल्ली
(प्रसिद्ध लेखक, साहित्यिक एवं विचारवंत)
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प्रचारक, अनुवादक एवं संकलन कर्ता -
यतिन जाधव (व्यवस्थापक एवं संचालक)
"दि बुद्धिस्ट सोशल नेटवर्क ऑफ इंडिया"
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