शनिवार, २४ जून, २०१७

● बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और इस्लाम (हिंदी अनुवाद)

● बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और इस्लाम

लेखक -
एस. आर. विद्यार्थी
(एम. ए. एल. एल. बी.)

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◆ भूमिका -

इस पुस्तिका में भारतीय शोषित, दलित एवं पीड़ित समाज की समस्या का समाधान प्रस्तुत करने के लिए एक सशक्त, साहसिक, यथार्थवादी एवं अत्यन्त व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया गया है। इसके लेखक माननीय श्री आर. एस. विद्यार्थी जी सन १९६१ से १९८९ तक बौद्ध धर्म से सम्बद्ध रहे हैं। इन्होंने लगभग १० वर्षों तक लगातार भारतीय बौद्ध महासभा दिल्ली प्रदेश की कार्यकारिणी, उसकी शाखाओं के संयोजक, महासचिव एवं अध्यक्ष पदों को सुशोभित ही नहीं किया वर्ण इस अवधि में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर की शिक्षाओं को साकार रूप भी प्रदान किया। यह पुस्तक भी बाबासाहब डॉ. आंबेडकर द्वारा निरूपित एवं विर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होगी, ऐसी हम कामना करते हैं।

आप कहीं जा रहे हैं, इसका इतना महत्व नहीं जितना इस बात का है कि आप वहां क्यों जा रहे हैं? बाबासाहब ने १९३५ में यह कह कर कि ‘हमें हिन्दू नहीं रहना चाहिए। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ यह मेरे बस की बात नहीं थी लेकिन मैं हिन्दू रहते हुए नहीं मरूंगा, यह मेरे बस की बात है।’ धर्मान्तरण की घोषणा कर दी। लेकिन धर्म परिवर्तन क्यों करना है? बाबासाहब ने यह बात अपने अनुयायियों को समझाना बहुत ही आवश्यक समझा था। अतः ३१ मई सन् १९३६ को बम्बई में उन्होंने महार / दलित परिषद बुलाई जिसमें ‘हमें धर्मान्तर क्यों करना है?’ को उन्होंने विस्तार से समझाया। बाबासाहब ने इस सभा में अपना लिखित भाषण मराठी भाषा में दिया था। आदरनीय विमल कीर्ति जी ने इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा कर बाबासाहब के विचारों को जानने में हिन्दी भाषी पाठकों की मदद कर महान अनुकम्पा की है।

बाबासाहब द्वारा लिखित तथा आदरणीय विमल कीर्ति जी द्वारा अनुवादित सन १९७८ में प्रकाशित पुस्तक ‘दलित वर्ग को धर्मान्तर की आवश्यकता क्यों है?’ को आधार मानकर यह पुस्तिका लिखी गई है। अतः इसमें जहां भी केवल पृष्ठ-संख्या दी गई है वह उस उपरोक्त पुस्तक की है। हमें पुर्ण आशा है कि यह पुस्तिका आकार में छोटी होने के बावजूद दलित वर्ग की ज्वलन्त मूल समस्या का समाधान प्रस्तुत कर उसका सही एवं स्थायी मार्गदर्शन करेगी।

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• बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और इस्लाम :

मूल रूप से पशु और मनुष्य में यही विशेष अन्तर है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है। हिन्दू धर्म ने दलित वर्ग को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुँचा दिया है, यही कारण है कि वह अपनी स्थिति परिवर्तन के लिए पूरी तरह कोशिश नहीं कर पा रहा है, हां, पशुओं की तरह ही वह अच्छे चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक गुलामी दूर करने के अपने महान उद्देश्य को गम्भीरता से नहीं ले रहा है।

• दलितों की वास्तविक समस्या क्या है? :

परम्परागत उच्च वर्ग द्वारा दलितों पर बेक़सूरी एवं बेरहमी से किए जा रहे अत्याचारों को कैसे रोका जाए, यही दलितों की मूल समस्या है। हज़ारों वर्षों से दलित वर्ग पर अत्याचार होते आए हैं, आज भी बराबर हो रहे हैं। यह अत्याचारों का सिलसिला कैसे शुरू हुआ और आज तक भी ये अत्याचार क्यों नहीं रुके हैं? यह एक अहम सवाल है। इतिहास साक्षी है कि इस देश के मूल निवासी द्रविड़ जाति के लोग थे जो बहुत ही सभ्य और शांति प्रिय थे। आज से लगभग पांच या छः हज़ार वर्ष पूर्व आर्य लोग भारत आये और यहां के मूल निवासी द्रविड़ों पर हमले किए। फलस्वरूप आर्य और द्रविड़ दो संस्कृतियों में भीषण युद्ध हुआ। आर्य लोग बहुत चालाक थे। अतः छल से, कपट से और फूट की नीति से द्रविड़ों को हराकर इस देश के मालिक बन बैठे।

इस युद्ध में द्रविडों द्वारा निभाई गई भूमिका की दृष्टि से द्रविड़ों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में वे आते हैं जिन्होंने इस युद्ध में बहादुरी से लड़ते हुए अन्त तक आर्यों के दाँत खट्टे किये। उनसे आर्य लोग बहुत घबराते थे। दूसरी श्रेणी वे द्रविड़ आते हैं जो इस युद्ध में आरम्भ से ही तटस्थ रहे या युद्ध में भाग लेने के थेड़े बाद ही ग़ैर जानिबदार हो गए अर्थात लड़े नहीं। आर्यों ने विजय प्राप्त कर लेने के बाद युद्ध में भाग लेने वाले और न लेने वाले दोनों श्रेणी के द्रविड़ों को शुद्र घोषित कर दिया और उनका काम आर्यों की सेवा करना भी निश्चित कर दिया। केवल इतना फ़र्क़ किया कि जिन द्रविड़ों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था उन्हें अछूत शूद्र घोषित कर शान्ति से रहने दिया। कोली, माली, धुना, जुलाहे, कहार, डोम आदि इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन जिन द्रविड़ों ने इस युद्ध में बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लिया और इसके साथ ही उन्हें शूर वीरता का परिचय दिया उन मार्शल लोगों को अछूत - शूद्र घोषित कर दिया और इसके साथ ही उन्हें इतनी बुरी तरह कुचल दिया जिससे कि वे लोग हज़ारों साल तक सिर भी न उठा सके। उनके कारोबार ठप्प कर दिए, उन्हें गांव के बाहर बसने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें इतना बेबस कर दिया कि उन्हें जीवित रहने के लिए मृत का मांस खाना पड़ा। जाटव, भंगी, चमार, महार, खटीक वग़ैरह आदि इसी श्रेणी के लोग हैं। किन्तु इस मार्शल श्रेणी के लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा बना जिसने यह तय कर लिया कि ठीक है हम युद्ध में हार गए हैं लेकिन फिर भी हम इन आर्यों की गुलामी स्वीकार नहीं करेंगं। वे लोग घोर जंगलों में निकल गए और वहीं पर रहने लगे। नागा, भील, संथाल, जरायु पिछड़ी जातियां आदि जंगली जातियां इसी वर्ग में आती हैं। जो आज भी आर्यों की किसी भी सरकार को दिल से स्वीकार नहीं करती हैं और आज भी स्वतंत्रता पूर्वक जंगलों में ही रहना पसन्द करती हैं।

आर्य संस्कृति का ही दूसरा नाम हिन्दू धर्म या हिन्दू समाज है। हिन्दू आज बात तो शांति की करते हैं लेकिन हज़ारों वर्ष पूर्व हुए आर्य - द्रविड़ युद्ध में छल से हराए गए द्रविड़ संस्कृति के प्रतीक महाराजा रावण का प्रति वर्ष पुतला जला कर द्वेष भावना का प्रदर्शन करते हैं। आज भी वे शूद्रों को अपना शत्रु और गुलाम मानकर उन्हें ज़िन्दा जला डालते हैं, उनका क़त्ले आम करते हैं, उनके साथ तरह - तरह के अवर्णनीय लोमहर्षक अत्याचार करते हैं। वर्तमान में हुए कुछ अत्याचारों के उदाहतण इस प्रकार हैं - मंदिर में जल चढ़ाने के आरोप में, हरिजनों को गोली से उड़ा दिया। (हमारे कार्यालय संवाददाता द्वारा)

नई दिल्ली ७ अगस्त,
मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले में खेरावाली गांव में शिव मंदिर में जल चढ़ाने जा रही तीन हरिजनों को दिन दहाड़े गोली से उड़ा दिया गया। तीन अन्य घायल हो गए, इनमें एक ग़ैर हरिजन था। यह जरनकारी यहां मध्यप्रदेश के भूतपूर्व स्वायत्त शासन मंत्री व अखिल भरतीय कांग्रेस कमेटी ई. के सदस्य श्री राजाराम सिंह ने दी। उन्हें बताया कि गोली तो डाकुओं ने मारी लेकिन उन्हें गांव के ठाकुरों ने बुलाया था। घटना का विवरण देते हुए श्री राजाराम सिंह ने बताया कि ठाकुरों ने हरिजनों को पहले ही धमकी दी थी कि उन्हें शिवाले में जल नहीं चढ़ाने दिया जाएगा।

हरिजनों ने इस धमकी की रिपोर्ट थाने में लिखवाई। पुलिस ने धारा १०७ के अन्तर्गत मामला तो दर्ज कर लिया लेकिन कोई प्रभावी क़दम नहीं उठाया। श्री सिंह के अनुसार हरिजन २८ जुलाई को जब मथुरा ज़िले के सोरोघाट से कांवर में जल लेकर गांव आए और शिवालय जाने लगे तो पहले से उपस्थित डाकुओं के एक गिरोह ने उन पर गोली चलाई। इसमें तीन हरिजन मारे गए तथा अनेक घयल हुए। यह घटना दिन में ३ और ४ बजे के बीच हुई। घटना के बाद डाकू बिना किसी लूटपाट के लौट गए। अभी तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई। (हिन्दुस्तान दैनिक, दिनांक ८/८/१९८१)

• हरिजन को पेड़ पर लटका कर मार दिया :

(सांध्य टाइम्स, दिनांक ११/८/१९८१) कोयम्बतूर से २० कि. मीटर दूर मानपल्ली गांव में सवर्ण ज़मींदारें ने २० वर्ष के हरिजन युवक को नारियल के पेड़ से लटका दिया। कई घंटे लटकने के बाद उस युवक की मृत्यु हो गई। पुलिस के अनुसार उस युवक के साथ दो हरिजन औरतों को भी नारियल के पेड़ से टांग दिया था। मगर युवक की मृत्यु के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। बताया जाता है कि दो ज़मींदार मोटर साइकिल पर गांव से कहीं बाहर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें दो हरिजन युवक और दो युवतियां दिखीं। उन ज़मींदारों को रास्ता देने पर झगड़ा हो गया। एक हरिजन युवक भाग खड़ा हुआ। शेष तीनों युवक युवतियों को नारियल के पेड़ से बांध दिया गया, जिससे युवक की मृत्यु हो गई। इनके अतिरिक्त रोज़ाना ही अत्याचारों की ख़बरें छपती रहती हैं। बलछी, कफलटा, दिहुली, साढ़ूपुर आदि में हुए दिल दहलाने वाले काण्ड कभी भुलाए नहीं जा सकते हैं। देश में कोई ऐसा क्षण नहीं होगा जब कि दलित वर्ग पर अत्याचार नहीं होता होगा, क्योंकि अख़बार में तो कुछ ही ख़ास ख़बरें छप पाती हैं।

"ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय और अत्याचार का प्रश्न है। एक मनुष्य पर हो रहे अन्याय या अत्याचारों का प्रश्न नहीं है, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर ज़बरदस्ती से किये जा रहे अतिक्रमण और जुल्म, शोषन तथा उत्पीड़न का प्रश्न है।" इस प्रकार यह एक निरंतर से चले आ रहे वर्ग कलह की समस्या है। इन अत्याचारों को कौन करता है? क्यों करता है? और किस लिए करता है? अत्याचारी अत्याचार करने में सफल क्यों हो रहा है? क्या ये अत्याचार रोके जा सकते हैं? अत्याचारों का सही और कारगर उपाय, साधन या मार्ग क्या हो सकता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर दलित वर्ग को आज फिर से संजीदगी से विचार करना चाहिए। दलित वर्ग पर अत्याचार हिन्दू धर्म के तथकथित सवर्ण हिन्दू करते हैं और वे अत्याचार इसलिए नहीं करते कि दलित लोग उन का कुछ बिगाड़ रहे हैं बल्कि दलितों पर अत्याचार करना वे अपना अधिकार मान बैठे हैं और इस प्रकार का अधिकार उन्हें उनके धर्म ग्रन्थ भी देते हैं। सवर्ण अपनी परम्परागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। जब दलित वर्ग परम्परागत उच्च वर्ग (हिन्दू) से व्यवहार करते वक्त बराबरी के, समानता के रिश्ते से बरताव रखने का आग्रह करता है तब यह वर्गकलह उत्पन्न होता है, क्योंकि ऊपरी वर्ग निचले वर्ग के इस प्रकार के व्यवहार को अपनी मानहानि मानता है। इस प्रकार सवर्ण अपनी परम्परागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। सवर्ण और दलित वर्ग के बीच यह एक रोज़ाना होने वाला ‘वर्ग कलह’ है। किस तरह से इस वर्ग कलह से अपना बचाव किया जा सकता है। इसका विचार करना अत्यावश्यक है। इस वर्ग कलह से अपना बचाव कैसे होगा? इस प्रश्न का निर्णय करना मैं समझता हूँ मेरे लिए कोई असंभव बात नहीं है। यहां इकट्ठा हुए आप सभी लोगों को एक ही बात मान्य करनी पड़ेगी और वह यह कि किसी भी कलह में, संघर्ष में, जिनके हाथ में सामर्थ्‍य होती है, उन्हीं के हाथ में विजय होती है, जिनमें सामर्थ्‍य नहीं है उन्हें अपनी विजय की अपेक्षा रखना फ़िज़ूल है । इसलिए तमाम दलित वर्ग को अब अपने हाथ में सामर्थ्‍य और शक्ति को इकट्ठा करना बहुत ज़रूरी है।

• सामर्थ्‍य अर्थात बल क्या चीज़ होती है? :

मनुष्य समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है। एक है मनुष्य बल, दूसरा है धन बल, तीसरा है मनोबल। इन तीनों बलों में से कौन सा बल आपके पास है? मनुष्य बल की दृष्टि से आप अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि संगठित भी नहीं हैं। फिर संगठित नहीं, इतना ही नहीं, इकट्ठा भी तो नहीं रहते। दलित लोग गांव और खेड़ों में बिखरे हुए हैं इसी कारण से जो मनुष्य बल है भी उसका भी ज़्यादती ग्रस्त, ज़ुल्म से पीड़ित अछूत वर्ग की बस्ती को किसी भी प्रकार का उपयोग नहीं हो सकता है।

धन बल की दृष्टि से देखा जाए तो आपके पास थोड़ा बहुत जनबल तो है भी लेकिन धन बल तो कुछ भी नहीं है। सरकारी आंकड़ों अनुसार देश की कुल आबादी की ५५% जनसंख्या आज भी ग़रीबी की रेखा से नीचे का जीवन बिता रही है जिसका ९०% दलित वर्ग के लोग ही हैं।

मानसिक बल की तो उससे भी बुरी हालत है। सैकड़ों वर्षों से हिन्दुओं द्वारा हो रहे ज़ुल्म, छि - थू मुर्दों की तरह बर्दाश्त करने के कारण प्रतिकार करने की आदत पूरी तरह से नष्ट हो गई है। आप लोगों का आत्म विश्वास, उत्साह और महत्वकांक्षी होना, इस चेतना का मूलोच्छेद कर दिया गया है। हम भी कुछ कर सकते हैं इस तरह का विचार ही किसी के मन में नहीं आता है।

यदि मनुष्य के पास जन बल और धन बल ये दोनों हों भी और मनोबल न हो तो ये दोनों बेकार साबित हो जाते हैं। मान लीजिए आप के पास पैसा भी ख़ूब हो और आदमी भी काफ़ी हों, आपके पास बन्दूकें और अन्य सुरक्षा सामग्री भी उप्लब्ध हो लेकिन आपके पास मनोबल न हो तो आने वाला शत्रु आपकी बन्दूकें और सुरक्षा सामग्री भी छीन ले जाएगा। अतः मनोबल का होना परम आवश्यक है। मनोबल का जगत प्रसिद्ध उदाहरण आपके सामने है। ऐतिहासिक घटना है कल्पना की बीत नहीं। नेपोलियन एक बहुत साहसिक एवं अजेय सेनापति के रूप में प्रसिद्ध था, उसके नाम ही से शत्रु कांप उठते थे, लेकिन उसको मामूली से एक सैनिक ने युद्ध में हरा दिया था। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस सैनिक ने यह कह कर उसे हराया था कि मैं नेपोलियन को अवश्य हराऊंगा क्योंकि मैंने उसे खेल के मैदान में हरा रखा है। और वास्तव में उसने नेपोलियन को हरा दिया। उस सैनिक ने उस महान शक्तिशाली अजेय कहे जाने वाले नेपोलियन को इसीलिए हरा दिया क्योंकि उसका मनोबल नेपोलियन के प्रति खेल के मैदान से ही बढ़ा हुआ था।

मनोबल की यह एक विशेषता है कि वह एक बार जब किसी के विरुद्ध बढ़ जाता है तो फिर उसका कम होना असंभव होता है। तभी तो नैपोलियन के पास वास्तविक भौतिक शक्ति एवं रण कौशल होने के बावजूद उसके विरुद्ध बढ़े मनोबल वाले एक मामूली से सैनिक ने उसे ऐलान करके हरा दिया। अतः यदि दलित वर्ग यह सोचे कि हम सिर्फ़ अपनी शक्ति के बल पर ही अत्याचारों का मुक़ाबला कर लेंगं तो यह उनकी भूल है। फिर हमें इस पहलू को हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए कि सवर्ण हिन्दुओं का मनोबल हमारे विरुद्ध पहले से ही बहुत बढ़ा हुआ है। हम चाहें कितनी ही वास्तविक शक्ति अर्जित कर लें लेकिन वे तो यही सोचते हैं कि-हैं तो ये वे ही चमार, भंगी (या अछूत) ही, ये कर भी क्या सकते हैं? इसीलिए हमें मनोबल बढ़ाने की ज़रूरत है और यह उसी समय सम्भव है जब हम किसी बाहरी सामाजिक शक्ति की मदद लें जिसका मनोबल गिरा हुआ नही वर्ण बढ़ा हुआ हो।

• दलितों पर ही ज़ुल्म क्यों होता है? :

वास्तविक स्थिति का मैंने यह जो विश्लेषण किया है यदि यह वस्तुस्थिति है तो इससे जो सिद्धान्त निकलेगा उसको भी आप सब लोगों को स्वीकार करना होगा और वह यह है कि आप अपने ही व्यक्तिगत सामथ्र्य पर निर्भर रहेंगे तो आपको इस ज़ुल्म का प्रतिकार करना सम्भव नहीं है। आप लोगों कं सामथ्र्यहीन होने के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दुओं द्वारा ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय होता है इसमें मुझे किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है। आपकी तरह यहां मुस्लिम भी अल्पसंख्यक हैं। किसी गांव में मुसलमानों के दो घर होने पर कोई स्पृश्य हिन्दू उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। आप (दलित - अस्पृश्य) लोगों के दस मकान होने पर भी स्पृश्य हिन्दू ज़्यादती, अन्याय और ज़ुल्म करते हैं। आपकी वस्तियां जला दी जाती हैं, आपकी महिलाओं से बलात्कार होता है। आदमी, बच्चे और महिलाओं को जिन्दा जला दिया जाता है। आपकी महिलाओं, बहू और जवान बेटियों को नंगा करके गांव में घुमाया जाता है यह सब क्यों होता है? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, इस पर आप लागों को गम्भीरता से चिन्तन और खोज करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में इस प्रश्न का एक ही उत्तर दिया जा सकता है और वह यह है कि उन दो मुसलमानों के पीछे सारे भारत के मुसलमान समाज की शक्ति और सामथ्र्य है। इस बात की हिन्दू समाज को अच्छी तरह जानकारी होने के कारण उन दो घर के मुसलमानों की ओर किसी हिन्दू ने टेढ़ी उंगली उठायी तो पंजाब से लेकर मद्रास तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक संपूर्ण मुस्लिम समाज अपनी शक्ति ख़र्च कर उनका संरक्षण करेगा। यह यक़ीन स्पृश्य हिन्दू समाज को होने के कारण वे दो घर के मुसलमान निर्भय होकर अपनी जिन्दगी बसर करते हैं। किन्तु आप दलित अछूतों के बारे में स्पृश्य हिन्दू समाज की यह धारणा बन चुकी है और वाक़ई सच भी है कि आपकी कोई मदद करने वाला नहीं है, आप लोगों के लिए कोई दौड़ कर आने वाला नहीं है, आप लोगों को रुपयों पैसों की मदद होने वाली नहीं है और न तो आपको किसी सरकारी अधिकारी की मदद होने वाली है। पुलिस, कोर्ट और कचहरियां यहां सब उनके ही होने के कारण स्पृश्य हिन्दू और दलितों के संघर्ष में वे जाति की ओर देखते हैं, अपने कत्र्तव्यों की ओर उनका कोई ध्यान नहीं होता है कि हमारा कौन क्या बाल बांका कर सकता है। आप लोगों की इस असहाय अवस्था के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दू समाज ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय करता है।

यहां तक मैंने जो विश्लेषण किया है उससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली बात यह है कि बिना सामथ्र्य के आपके लिए इस ज़ुल्म और अन्याय का प्रतिकार करना संभव नहीं है। दूसरी बात यह कि प्रतिकार के लिए अत्यावश्यक सामथ्र्य आज आपके हाथ में नहीं है। ये दो बातें सिद्ध हो जाने के बाद तीसरी एक बात अपने आप ही स्पष्ट हो जाती है कि यह आवश्यक सामथ्र्य आप लोगों को कहीं न कहीं से बाहर से प्राप्त करना चाहिए। यह सामथ्र्य आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यही सचमुच महत्व का प्रश्न है और उसका आप लोगों को निर्विकल्प दृष्टि से चिंतन और मनन करना चाहिए।

• बाहरी शक्ति कैसे प्राप्त करनी चाहिए? :

जिस गांव में अछूत लोगों पर हिन्दू स्पृश्यों की ओर से ज़ुल्म होता है उस गांव में अन्य धर्मावलम्बी लोग नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है। अस्पृश्यों पर होने वाला ज़ुल्म बेक़सूरी का है, बेगुनाहों पर ज़्यादती है, यह बात उनको (अन्य धर्म वालों को) मालूम नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, जो कुछ हो रहा है वह वास्तव में ज़ुल्म और अन्याय है यह मालूम होने पर भी वे लोग अछूतों की मदद के लिए दौड़कर नहीं जाते हैं, इसका कारण आख़िर क्या है? ‘तुम हमको मदद क्यों नहीं देते हो?’ यदि ऐसा प्रश्न आपने उनसे पूछा तो ‘आपके झगड़े में हम क्यों पड़ें? यदि आप हमारे धर्म के होते तो हमने आपको सहयोग दिया होता’- इस तरह का उत्तर वे आपको देंगें। इससे बात आपके ध्यान में आ सकती है कि किसी भी अन्य समाज के आप जब तक एहसानमंद नहीं होंगे किसी भी अन्य धर्म में शामिल हुए बिना आपको बाहरी सामर्थ्‍य प्राप्त नहीं हो सकता है। इसका ही स्पष्ट मतलब यह है कि आप लोगों का धर्मान्तर करके किसी भी समाज में अंतर्भूत हो जाना चाहिए। सिवाय इसके आपको उस समाज का सामर्थ्‍य प्राप्त होना सम्भव नहीं है। और जब तक आपके पीछे सामथ्र्य नहीं है तब तक आपको और आपकी भावी औलाद को आज की सी भयानक, अमानवीय अमनुष्यता पूर्ण दरिद्री अवस्था में ही सारी जि़न्दगी गुज़ारनी पड़ेगी। ज़्यादतियां बेरहमी से बर्दाश्त करनी पड़ेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। बाबासाहब के इन विचारें से यह बात अपने आप साफ़ हो जाती है कि सामथ्र्य प्राप्त करने के लिए हमें किसी अन्य समाज का एहसानमंद अवश्य ही होना पड़ेगा किसी अन्य समाज में हमें अवश्य ही मिल जाना होगा। दलित वर्ग के जो लोग ऐसा समझते हैं कि वह स्वयं अपने संगठन और बाहूबल से ही अपनी समस्याएं हल कर सकते हैं वे सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुद धोखे और फ़रेब में हैं, बल्कि दलित समाज को भी ग़लत राह दिखा रहे हैं- ऐसी राह जो बाबासाहब के विचारों के बिल्कुल विपरीत है।

• हिन्दू धर्म में आपके प्रति कोई सहानुभूति नही :

हिन्दू धर्म और समाज की ओर यदि सहानुभूति की दृष्टि से देखा जाए तो अहंकार, अज्ञान और अन्धकार ही दिखाई देगा, यही कहना पड़ेगा। इसका आप लोगों को अच्छा ख़ासा अनुभव है। हिन्दू धर्म में अपनत्व की भावना तो है ही नहीं। किन्तु हिन्दू समाज की ओर से आप लोगों को दुश्मनों से भी दुश्मन, गुलामों से भी गुलाम और पशुओं से भी नीचा समझा जाता है।

• हिन्दू समाज में क्या आपके प्रति समता की दृष्टि है? :

कुछ हिन्दू लोग अछूतों को कहते हैं कि तुम लोग शिक्षा लो, स्वच्छ रहो, जिससे हम आपको स्पर्श कर सकेंगे, समानता से भी देखेंगे। मगर वास्तव में देखा जाए तो अज्ञानी, दरिद्री और अस्वच्छ दलितों का जो बुरा हाल होता है वही बुरा हाल पढ़े-लिखे पैसे वाले और स्वच्छ रहने वाले तथा अच्छे विचार वाले दलितों का भी होता है। दलित वर्ग समृद्धि की पराकाष्ठा के प्रतीक तत्कालीन उप प्रधानमंत्री श्री जगजीवन रामजी को वाराणसी में श्री संपूर्णनन्द की मूर्ति का अनावरण करने पर जिस तरह से अपमानित होना पड़ा था उससे दलितों की आंखें खुल चुकी हैं कि हिन्दुओं का स्वच्छता के आधार पर समानता का बर्ताव करने का आश्वासन कितना बड़ा धोखा है। याद रहे, श्री जगजीवन राम जी द्वारा अनावरण की गई मूर्ति को गंगाजल से धोकर पवित्र किया गया था। कुछ भाई अपने आर्थिक पिछड़ेपन ही को अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का कारण मानते हैं। यह बात ठीक है कि ग़रीबी बहुत दुखों का कारण है लेकिन ग़रीब तो ब्राह्मण भी हैं, वैश्य भी हैं और क्षत्रिय भी हैं ग़रीबी से वे लोग भी परेशान हैं और वे ग़रीबी के विरुद्ध लड़ भी रहे हैं लेकिन हमें एक साथ दो लड़ाइयां लड़नी पड़ रही हैं - एक तो ग़रीबी की दूसरी घृणा भरी जाति प्रथा की। एक तरफ़ हम पर ग़रीबी की मार पड़ रही है और दूसरे हमारी एक विशेष जाति होने के कारण हम पिट रहे हैं। हमें जाति की लड़ाई तो तुरन्त समाप्त कर देनी चाहिए। हम भंगी, चमार, महार, खटीक आदि अछूत तभी तक हैं, जब तक कि हम हिन्दू हैं।

• हिन्दू धर्म में स्वतंत्रता :

क़ानून से आपको चाहे जितने अधिकार और हक़ दिए गए हों किन्तु यदि समाज उनका उपयोग करने दे तब ही यह कहा जा सकता है कि ये वास्तविक हक़ है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आपको न मंदिर जाने की स्वतंत्रता है और न जीने की स्वतंत्रता है, यह आप भली-भांति जानते हैं। इसके समर्थन में अधिक तथ्य जुटाने की आवश्यकता नहीं है। यदि स्वतंत्रता की दृष्टि से देखा जाए तो हम अपने आपको एक गुलाम से भी बदतर हालत में ही पायेंगे। स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक चीज़ें बताई गई हैं उनमें से आपके लिए हिन्दू धर्म में कोई भी उपलब्ध नहीं है।

• क्या हिन्दू धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म था? :

हिन्दू धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं हो सकता है, बल्कि उन पर ज़बरदस्ती लादी गई एक गुलामी, दासता थी। हमारे पूर्वजों को इस धर्म में ही रखना यह एक क्रूर ख़ूनी पंजा था जो हमारे पूर्वजों के ख़ून का प्यासा था। इस गुलामी से अपनी मुक्ति पाने की क्षमता और साधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए उन्हें इस गुलामी में रहना पड़ा। इसके लिए उन्हें हम दोषी नही ठहरायेंगे, कोई भी उन पर रहम ही करेगा। किन्तु आज की पीढ़ी पर उस तरह की ज़बरदस्ती करना किसी के लिए भी सम्भव नही है। हमें हर तरह की स्वतंत्रता है। इस आज़ादी का सही-सही उपयोग कर यदि इस पीढ़ी ने अपनी मुक्ति का तरस्ता नहीं खोजा, यह जो हज़ारों साल से ब्राह्मणी अर्थात हिन्दू धर्म की गुलामी है उसको नही तोड़ा तो मैं यही समझूंगा कि उनके जैसे, नीच, उनके जैसे हरामी और उनके जैसे कायर भी स्वाभिमान बेचकर पशु से भी गई गुज़ारी जि़न्दगी बसर करते हैं अन्य कोई नहीं होंगे। यह बात मुझे बड़े दुख और बड़ी बेरहमी से कहनी पड़ेगी।

धर्म, उद्देश्य पुर्ति का साधन है,
अतः धर्म परिवर्तन करो।

यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दू धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से गुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन करना हो तो धर्मान्तर करो। समता प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करें। आज़ादी प्राप्त करना हो तो धर्मान्तर करो। मानवी सुख चाहते हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दू धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है।

• धर्म परिवर्तन का उद्देश्य :

इस प्रकार बाबासाहब डॉ. आंबेडकर ने धर्मान्तर का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट रूप से बाहरी शक्ति प्राप्त करना निश्चित किया था। इसे हमें कभी भी नही भूलना चाहिए, क्योंकि बाहरी शक्ति प्राप्त करने से ही दलित वर्ग पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सकेगा, बेइज़्ज़ातीपूर्ण जिन्दगी से मुक्ति मिल सकेगी और हमें मिल जाएगा स्वतंत्र जीवन, सम्मानपूर्ण जीवन, इन्सालियत की जिन्दगी। बाहरी शक्ति प्राप्त करनी है, इस निश्चय को क्रियान्वित करने के लिए बाबासाहब ने १४ अक्तूबर सन् १९५६ को अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया था।

• बाबासाहब ने बौद्ध धर्म को ही क्यों अपनाया? :

किसी भी विद्वान और विशेषकर वकील को अपने किसी भी मामले में सफल होने के लिए उसे अपने लक्ष्य को नही भूलना चाहिए। सबसे अच्छा रास्ता वही होता है, जिससे लक्ष्य तक पहुंचा जा सके। किसी भी रमणीय सुन्दर रास्ते को अच्छा नही कहा जा सकता यदि वह लक्ष्य तक नही पहुंचाता है। बाबासाहब एक महान विद्वान ही नही उच्च कोटि के बैरिस्टर भी थे। अतः १९५६ में जब उन्होने धर्म परिवर्तन के लिए पूर्व निश्चित लक्ष्य ‘बाहरी शक्ति प्रदान करना’ अर्थात किसी भी बाहरी समाज की शक्ति प्राप्त करने को सामने रखा था। तदनुसार उन्होंने सोचना प्रारम्भ किया कि हिन्दू समाज के अलावा किस समाज की शक्ति इस देश में है जिसे प्राप्त करके दलित वर्ग के लोग अत्याचारों से बच सकें और सम्मानित जीवन व्यतीत कर सकें। उन्होंने पाया कि इस देश में न तो ईसाई समाज की शक्ति है, न बौद्ध समाज की और न इस्लामी समाज की। सन १९४७ के देश विभाजन के बाद दूसरों की तरह मुसलमानों की शक्ति भी हमारे देश में न के बराबर ही रह गई थी। अर्थात हमारे देश में किसी अन्य समाज की शक्ति नहीं थी जिसे पाकर अत्याचारों से मुक्ति मिल सकती। सम्यक् कल्पना कीजिए कि एक कमरे के बीचोबीच एक कमज़ोर जर्जर मरीज़ गिरने वाला है और उस कमरे में स्तम्भ आदि कुछ भी नहीं है जिसका वह सहारा ले सके। तब वह क्या करेगा? वह सहारा लेने के लिए उस कमरे की किसी दीवार की तरफ़ ही बढ़ेगा। ठीक इसी प्रकार बाबासाहब ने भी जब देखा कि इस कमरा रूपी देश में कोई सहारा नहीं है तब उनको अपने कमज़ोर समाज को गिरने से बचाने के लिए दीवारों की ओर जाना पड़ा। अर्थात जब उन्होने पाया कि इस देश में कोई भी ऐसा समाज नहीं रही है जिसकी शक्ति में विलीन होकर दलित वर्ग को उत्पीड़न एवं अत्याचारों से बचाया जा सके तब उन्होंनं हमारे देश के निकट के देशों की ओर दृष्टि डाली कि क्या उनमें कोई ऐसा समाज रहता है जिसकी शक्ति पाकर लक्ष्य की प्राप्ति की जा सके। उन्होंने पाया कि चीन, जापान, लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में बौद्ध धर्मावलम्बी समाज है। अतः उनकी शक्ति अथात् ‘बाहरी शक्ति’ पाने के लिए बौद्ध धर्म ही अपनाना चाहिये और उन्होंने ऐसा ही किया। उन दिनों किसी अन्य धर्म को अपना कर लक्ष्य की प्राप्ति में दिक्क़त हो सकती थी और बौद्ध धर्म को अपनाकर ही लक्ष्य की प्राप्ति आसान मालूम पड़ती थी। इसीलिए बाबासाहब ने बौद्ध धर्म अपनाया था। इसमें ज़रा भी सन्देह की गुंजाइश नहीं है।

पाकिस्तान बनने के बाद सन १९५६ में बाबासाहब ने जब धर्म परिवर्तन किया था, उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दूओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी। यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव - गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबासाहब १९५६ में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़्माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात् भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात कि बाबासाहब आंबेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह परम औषधि देकर केवल एक महीना २२ दिन ही ६ दिसम्बर सन १९५६ को परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबासाहब आंबेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैंने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित हैं, जो परम औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक़ भी आयी या रिएक्शन कर रही है अर्थात माफ़िक़ नहीं आ रही है। बाबासाहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी परम औषधि हमने आज से लगभग बत्तीस वर्ष पूर्व लेनी प्रारम्भ की थी उसने हमारे रोग को कितना ठीक किया? ठीक किया भी है या नहीं? अथवा कहीं यह औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात् उल्टी तो नहीं पड़ रही है? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज ३२ वर्ष बाद भी नहीं आया है? निश्चित रूप से हमें मुल्यांकन करना चाहिए।

बोद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफ़ल हुए हैं? इस सम्बन्ध में बाबासाहब द्वारा निर्धरित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति प्राप्त करना होना चाहिए। इस प्रकार दलित वर्ग द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग में बाहरी शक्ति कितनी आई? कुछ आई भी या बिल्कुल भी नहीं आई? या इस धर्म को अपनाने से हमारी मुल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है?

हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों के अन्दर किसी प्रकार की कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अभी तक अच्छे पढ़े लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया। अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल जनसंख्या की मुश्किल से २० प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो २० प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे ८० प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि ये ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और ८० प्रतिशत चमार जो बौद्ध नहीं बने हैं वे कहते हैं कि ये बुद्ध - चुद्ध कहां से बने हैं? इस प्रकार पहले जो चमारों की भी शक्ति थी वह भी २० और ८० में ऐसा भी नहीं रहा क्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना। यह तो रहा समग्र समाज का विश्लेषण। अब हम उन दलितों की स्थिति पर गौर करें जिन्होंने बौद्ध अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध जो हैं ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नव बौद्धों में आ गई हो और दोनों मिलकर एक ताक़त वर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नव बौद्धों की मदद में अपनी कोई रुचि नहीं दिखाई है। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहें तो कैसे करेंगे? ज़्यादा से ज़्यादा भारत सरकार को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्धों पर अत्याचार मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध-पत्र से काम चल जाएगा और उसकी फ़ोटा स्टेट कापियां कराके बौद्ध उन्हें लट्ठ मारने वालों या जिन्दा जला देने वालों को दिखाकर बच जाएंगे? या जहां उन्हें गोलियों से उड़ा देने वाली बात होती है तो क्या वे दूसरे देशों के विरोध पत्र की कापी गोली मारने वाले को दिखाकर गोली से बच जाऐंगे? इस प्रकार बाहरी देशों की मदद से तो इस देश में हम असहाय लोगों का कुछ भी भला होने वाला नहीं है और न ही हुआ है।

उनरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का अपना कर हमने कुछ पाने के बजाए कुछ खोया है और वही खोया है जिसको पाने के लिए यह अपनाया गया था। इस प्रकार बौद्ध धर्म दलित वर्ग के उद्देश्य की पूर्ति में पूर्ण रूप से विफल रहा है। प्रश्न किया जा सकता है क्या डॉ. आंबेडकर ने ग़लत सोचा था? क्या उनकी बुद्धि में ये सब बातें नहीं आई होगी? इस सम्बन्ध में इतना ही कहना काफ़ी होगा कि एक तो कमी किसी भी इन्सान से रह सकती है। दूसरे कुछ समस्यायें ऐसी होती हैं जो केवल सोचने मात्र से ही हल नहीं होती हैं बल्कि उनका क्रियान्वित होते देखना भी अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। बाबासाहब ने जो कुछ भी सोचा था वह ठीक ही सोचा था लेकिन जिस पर कोई नैतिक दायित्व हो और वह उसे पूरा न करे तो क्या उन में सोचने वाले की गलती मानी जाएगी? बौद्ध देशों ने अपनी जि़म्मेदारी नहीं निभाई और अब उनकी मदद से कुछ होने वाला भी नहीं है। क्याेकि हमारी समस्या केवल राजनैतिक नहीं है, वर्ण सामाजिक भी है और वह अधिक विकट है। यदि हमारे सामने सामाजिक समस्या न होती तब तो संभवतः संयुक्त राष्ट्र संघ आदि में बौद्ध देशों का सहारा ले सकते थे और अपनी राजनीतिक गुत्थी को सुलझा सकते थे। किन्तु हमें तो पहले सामाजिक शक्ति प्राप्त करनी है, जिससे कि आए दिन होने वाले अत्याचारों से बचा जा सके।

दलित लोग करोड़ों की संख्या में इस देश के लाखों में अलग - अलग बिखरे पड़े हैं। बिल्कुल निर्दोष होते हुए भी उन पर जगह - जगह जुल्म और अत्याचार होते हैं। इन अत्याचारों से कैसे बचा जाए यही दलित वर्ग की मूल समस्या है। इस महाव्याधि से मुक्ति दिलाने के लिए ही बाबासाहब डॉ.आंबेडकर ने बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि दी थी जो कामयाब नहीं हुई बल्कि उल्टी पड़ गई। अर्थात् दलित समाज बौद्ध और अबौद्ध दो ख़ेमों में बंटकर और भी कमज़ोर हो गया है। आप कहेंगे कि क्या बाबासाहब इसके लिए दोषी हैं? नहीं! बल्कि हमारे शरीर को यह परमौषधि माफ़िक़ ही नहीं आई। इस विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि बौद्ध धर्म से अब हमारा काम चलने वाला नहीं है, अब तो इस समाज को भला चंगा तगड़ा बनाने के लिए, अतिरिक्त बाहरी शक्ति प्राप्त करने के लिए दूसरी दवाई ही लेनी चाहिए।

कुछ लोग जानना चाहेंगे कि क्या बाबासाहब हमारे रोगी रूपी समाज के लिए सिद्ध हस्त डॉक्टर नहीं थे जो हमें ठीक दवाई नहीं दे पाए? इस प्रश्न का उत्तर आप एक सर्वांग रूप से उचित उदाहरण से समझ सकते हैं-कहा जाता है कि जिन डॉक्टरोंने पेंसिलीन नामक परमौषधि की खोज की थी उन्होंने घोषणा की थी कि संसार में यदि कोई अमृत नाम की चीज़ है तो वह पेंसिलीन है और उसे हमने खोज लिया है। बड़ी हद तक वह ठीक भी है क्योंकि जिसको पेंसिलीन माफ़िक़ आ जाती है वह उसके लिए अमृत ही साबित होती है। कितने ही गंभीर रोग को यह ठीक कर देती है। लेकिन जिसको माफ़िक़ नहीं आती उस मरीज़ की वही अमृत (पेंसिलीन) जान तक ले लेती है।

प्रत्येक डॉक्टर यही चाहता है कि मैं हर मरीज़ को पेंसिलीन का इंजेक्शन दूं, लेकिन देने से पहले ही वह एक टेस्ट डोज़ लगाता है। ताकि जान सके कि मरीज़ को यह दवाई माफ़िक़ भी आती है या नहीं यदि उसको माफ़िक़ नहीं आती है तो डाक्टर उसको पेंसिलीन बिल्कुल नहीं लगाता है। और साथ ही यह भी कह देता है कि पेंसिलीन कभी मत लगवाना क्योंकि यह आपको रिएक्शन करती है। बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से दलित वर्ग को रिएक्शन हुआ है। यह उसे और अधिक कमज़ोर बनाती जा रही हैं बौद्ध धर्म द्वारा २० प्रतिशत और ८० प्रतिशत में बंटकर दलित वर्ग की मूल शक्ति भी घट रही है और हमारी दशा ठीक ऐसी बन गई है जैसे एक बड़े डाक्टर के पास एक गंभीर रोग से पीड़ित मरीज़ा आया और वह डाक्टर उसकी परीक्षा कर अपने चेलों से कह कर कहीं चला गया कि इसको पेंसिलीन लगा दो जो सर्वोत्तम है। उसके चेले उस मरीज़ को पेंसिलीन का इन्जेक्शन लगा देते हैं लेकिन वह इन्जेक्शन उस मरीज़ के रिएक्शन करता है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आता है जिससे कि मरीज़ की हालत और बिगड़ने लगती है और बड़े डॉक्टर के वे मूर्ख और नातजुर्बेकार चेले अब भी कह रहे हैं कि हमारे बड़े डाक्टर इसको पेंसिलीन लगाने के लिए ही कह गए थे अतः पेंसिलीन लगाओ! क्या कोई भी समझदार व्यक्ति उनको बुद्धिमान कहेगा कि ये बड़े अच्छे पक्के चेले हैं कि अपने गुरु अर्थात् अपने बड़े डाक्टर की बात पर अड़े हुए हैं या उलटे उनको मूर्ख या अज्ञानी कहेगा? यही हालत हमारा है। बौद्ध धर्म हमें रिएक्शन कर रहा है जिससे परमौषधि समझकर बाबासाहब आंबेडकर हमें देकर केवल १ माह २२ दिन के बाद परलोक सिधार गए थे। वह हमें माफ़िक़ नहीं आ रही है क्योंकि बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था, लेकिन बाहरी शक्ति आना तो दूर की बात है, वह हमारी मूल शक्ति को भी घटा रहा है, यह हमने अच्छी तरह जान लिया है अथवा जान लेना चाहिए। यदि आज भी हम बौद्ध धर्म को ही अपनाने की जिद आग्रह करते हैं तो प्रत्येक समझदार व्यक्ति हमारी बुद्धिहीनता पर तरस खाएगा, वह हंसेगा और दुश्मन ख़ुशी मनाएगा और हो भी यही रहा है। आज जब हमारे कुछ जागरूक साथियों ने दूसरी औषधि, इस्लाम धर्म की तरफ़ ध्यान देना शुरू किया है और उसे अपनाना शुरू किया है तो हमारे अज्ञानी साथी इसका विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं नहीं वही बाबा बाहब की बताई हुई दवा लेनी है, और आज हमारा दुश्मन भी यही सलाह दे रहा है कि बौद्ध धर्म ही अपनाओ, मुसलमान मत बनो, क्योंकि वह जानता है कि इनके बौद्ध धर्म अपनाने से इनका कोई भला होने वाला नहीं है और मुझे कोई हानि भी होने वाली नहीं है। इस बात को बाबासाहब क अनुयायी कहलाने वालों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए और यदि बाबासाहब के अनुयायियों में थोड़ी भी समझ है तो उन्हें जान लेना चाहिए कि बाबासाहब द्वारा निर्धारित धर्मान्तर का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना है। यह अच्छी तरह से समझ लीजिए कि बाहरी शक्ति से तात्पर्य विदेशी शक्ति नहीं वरन् भारत में विद्यमान अन्य किसी भी समाज की शक्ति से है जिसे प्राप्त करने के लिए हमें पूरा प्रयत्न करना चाहिए। उसीके लिए हमें धर्म परिवर्तन करना है।

अब बाबासाहब के अनुयायियों को चाहिए कि बौद्ध धर्म रूपी परमौषधि लेने से जो विकार और उपद्रव हमारे समाज में पैदा हो गए हैं सर्वप्रथम उन्हें शांत करें और इस बौद्ध धर्मरूपी परमौषधि के स्थान पर कोई अन्य धर्म अपनाएं जिससे कि हम अपने धर्मान्तर के उद्देश्य को प्राप्त कर अत्याचारों से मुक्ति प्राप्त कर सकें।

बाबासाहब इस बात के लिए प्रयत्नशील थे कि मेरे दलित पीड़ित भाइयों को हिन्दुओं के ज़ुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिलनी चाहिए। वे इस बात के बिल्कुल क़ायल नहीं थे कि इस रोगी रूपी दलित वर्ग को अमुक औषधि अर्थात् बौद्ध धर्म ही दिया जाए, फ़ायदा हो या न हो। इसी लिए एक समय पर उन्होंने कहा था कि-‘यदि मैं अपने अछूत भाइयों को अत्याचारों से मुक्ति न दिला सका तो मैं अपने आपको गोली मारकर आत्महत्या कर लूंगा।’ यह थी उनकी भीशण प्रतिज्ञा। इस प्रकार यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि आज बाबासाहब होते तो निश्चय ही बौद्ध घर्म छोड़ कोई अन्य धर्म को अपनाने के लिए ही कहते। लेकिन बाबासाहब हमारे बीच में नहीं हैं, अतः आज तो हम को ही उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्य को पाने के लिए, अपने आपको अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धर्म को त्याग कर अन्य कोई धर्म अपनाना होगा।

स्वयं बाबासाहब ने अपने ही जीवनकाल में अपनी ही बहुत सी मान्यताओं को बदला था। इसके कुछ उदाहतण निम्नलिखित है -

(1) सामप्रदायिक समझौते (कम्युनल एवार्ड) द्वारा मिले दो वोटों के अधिकार को जिसे कि बाबासाहब बहुत ही आवश्यक मानते थे स्वयं एक वोट में बदलना स्वीकार कर लिया था।

(2) बाबासाहब गांधीजी के कट्टर विरोधी तथा उसको अछूतों का दुश्मन मानते थे। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि बाबासाहब ने गांधीजी की दिल खोलकर बड़ाई भी की हैं। उन्हीं के शब्दों में - मै समझता हूं कि इस सारे प्रकरण (पूना पैक्ट को करने के लिए) में इस हल का बहुत-सा श्रेय स्वयं महात्मा गांधी को है। "मैं मिस्टर गांधी का कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मुझको एक बड़ी नाज़ुक परिस्थिति में से निकाल लिया। मुझे एक ही अफ़सोस है, गांधीजी ने गोलमेज़ कांफ्रेस के समय भी यही रुख़ क्यों नहीं अपनाया। यदि उन्होंने मेरे दृष्टिकोण के साथ ऐसा ही उदारता पूर्ण व्यवहार किया होता तो उन्हें इस संकट में से न गुज़रना पड़ता। जो हो, ये सब बीती हुई बातें हैं। मुझे हर्ष है कि आज मैं यहां इस प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए उपस्थित हूं। मुझे विश्वास है कि जो अन्य मित्र उपस्थित नहीं हैं, मैं उनकी ओर से भी बोल रहा हूं कि हम उस समझौते का पालन करेंगे, इस विषय में किसी के मन में कुछ संदेह नहीं रहना चाहिए। मै आशा करता हूं कि हिन्दूगण इस समझौते को एक पवित्र समझोता मानेंगे और इसका पालन करते समय अपनी इज़्ज़त को बट्टा नहीं लगने देंगे।" (डॉ. आंबेडकर के भाषण, भाग १, १९७८ के संस्करण के पृष्ठ. ३३ से, संपादक भगवानदास एडवोकेट)

(3) बाबासाहब का विचार पहले हिन्दू धर्म में ही रहने का था - यदि हिन्दू दलित वर्ग को समानता का दर्जा दे देता। उन्हींके शब्दों में "यदि मंदिर प्रवेश अछूतों की उन्नति का पहला क़दम है तो वे इसका समर्थन इसलिए करेंगे क्योंकि वे ऐसा ही धर्म चाहते हैं जिसमें उन्हें सामाजिक समता प्राप्त हो। अछूत लोग अब ऐसे धर्म को बर्दाश्त नहीं करेंगे जिसमें जन्मना सामाजिक विषमता और भेदभाव सुरक्षित हो।" (पृष्ठ. १२२, बाबासाहब का जीवन संघर्ष, लेखक - जिज्ञासू) जिसे उन्होंने बाद में बदल दिया और धर्मान्तर की घोषणा कर दी। पूना पैक्ट के समय भाषण करते हुए उन्होंने कहा था कि - "आप इसे राजनैतिक समझौते से आगे बढ़कर वह ऐसा कर सकें जिससे दलित वर्ग के लिए न केवल हिन्दू समाज का एक हिस्सा बना रहना संभव हो जाये बल्कि उसे समाज में सम्मान और समानता का दर्जा प्राप्त हो जाए।" (डॉ. आंबेडकर के भाषण, पृष्ठ. ३५)

(4) बाबासाहब कांग्रेस के प्रायः विरुद्ध ही रहे, लेकिन उसके पक्के समर्थक बनकर भी सामने आए। उन्हीं के शब्दों में ‘‘तुन्हें कांग्रेस के प्रति अपने रुख़ को एकदम बदल देना चाहिए। अभी तक कांग्रेस के प्रति हमारा दृष्टिकोण एक विरोधी का दृष्टिकोण रहा है, हमें केवल अपने जातिगत स्वार्थों की ही चिन्ता रही है। अब हमने जब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है, हमें अपने दृष्टिकोण में आमूल परिवर्तन कर डालना चाहिए।’’ (डॉ. आंबेडकर के भाषण पृष्ठ. ६६)

"मुझ से लोग पूछते हैं कि पिछले पच्चीस वर्ष तक कांग्रेस के विरुद्ध लड़ते रहने के बावजूद मैंने उस ख़ास अवसर पर मौन क्यों धारण कर लिया। हमेशा लड़ते ही रहना सर्वश्रेष्ठ युद्ध कौशल नहीं है, हमें दूसरे ढंगों से भी काम लेना चाहिए। (डॉ. आंबेडकर के भाषण पृष्ठ. ६८)

इस तरह हम देखते हैं कि बाबासाहब ने अपने ही जीवन काल में अपनी मान्यताओं को बदला। इस बात के समर्थन में पुर्व वर्णित कुछ उदाहरण बहुत ख़ास मामलों से संबन्धित हैं जिनसे कि दलित वर्ग के जीवन-मरन का प्रश्न जुड़ा था। इसके अलावा जहां बाबासाहब ने दलितों के हितार्थ अपनी मान्यताओं को बदला, वहीं उनकी कुछ मान्यताएं पूरी भी नहीं उतरीं। जैसे कि उन्होंने कहा था - "जिस समाज में १० बैरिस्टर, २० डॉक्टर तथा ३० इंजीनियर हों ऐसे समाज को मैं धनवान समाज समझता हूं। यद्यपि उस समाज का हर एक व्यक्ति शिक्षित नहीं उदाहरण के लिये चमार। आज इस समाज को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अगर इसी समाज में कुछ वकील, डाक्टर तथा पढ़े - लिखे लोग हों तो कोई भी इस समाज की ओर आंख उठाकर भी देखने की हिम्मत नहीं करेगा, यद्यपि उसमें हर व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं है।" लेकिन इसमें बाबासाहब का तनिक भी कोई दोष नहीं। यदि आप अपने पुत्र से बहुत सी उम्मीदें रखते है और आपका पुत्र उन्हें पूरी नहीं करता है तो क्या आप दोषी है? ठीक इसी प्रकार बाबासाहब की मान्यताओं के ग़लत सिद्ध होने में बाबासाहब का कोई दोष नहीं बल्कि उनके अनुयायियों की कोताही है कि जिन्होंने अपना वह दायित्व नही निभाया, जो उनहें निभाना चाहिए था।

• धर्म मनुष्य के लिए है :

बाबासाहब ने कहा है - "मैं आप लोगों से यह स्पष्ट कह रहा हूं कि मनुष्य धर्म के लिए नहीं हैं बल्कि धर्म मनुष्य के लिए है। संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई चीज़ नहीं है। धर्म एक साधन मात्र है, जिसे बदल दिया जा सकता है, फेंक दिया जा सकता है।"

हम यह देख चुके हैं कि बौद्ध धर्म जिस उद्देश्य के लिए अपनाया गया था उसमें वह बिल्कुल असफल रहा है। अतः यह प्रश्न पैदा होता है कि अब कौन-सा धर्म अपनाया जाये। इसके लिए हमें देखना चाहिए कि बौद्ध धर्म के अलावा बाबासाहब किन - किन धर्मों को अच्छा और अनुरूप मानते थे। अन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म की बहुत बड़ाई की है और कहा है कि ‘इन्सान की इन्सानियत यही सबसे महत्वपूर्ण चीज है। यह (इन्सानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है। और यह इन्सानियत सबको आदरणीय होनी चाहिये।’ किसी को भी किसी का अपमान नहीं करना चाहिए और न ही किसी को असमान मानना चाहिए, यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) देते हैं। इस तरह हमारे सामने अब दो धर्म रह गए हैं जिनकी उपरोक्त शब्दों में ही नही, अन्य भी कई जगह पर बाबासाहब ने हृदय से बड़ाई की है।

• इस्लाम धर्म अपनाए या ईसाई मत? :

इस पर विचार करने से पूर्व हमें अपनी मूल समस्या को फिर से याद कर लेना चाहिए क्योंकि अच्छा विचारक वही होता है जो अपनी मूल समस्या से न हटे, उसका पूरा ध्यान तखे। यदि रोग को तय कर लिया जाता है तो रोगी का इलाज करने में अधिक कठिनाई नही होती है। समस्याएं तो हमारे सामने बहुतसी हैं, आर्थिक भी हैं, शिक्षा सम्बन्धी भी हैं, लेकिन ये समस्याएं तो अन्य लोगों की भी हैं, सवर्णों की भी हैं। रोटी तो तभी मिलेगी जब हम काम करेंगे, शिक्षा की समस्या तो तभी हल होगी जब हम अपने बच्चों को पढ़ाने की ठान लेंगे। वरना तो शिक्षा की समस्त सूविधाएं होते हुए भी आज भी चेतना शून्य लोग अपने बच्चों को जूते पालिश करने के लिए इसलिए भेज देते हैं ताकि शाम को दस रुपए कमा कर ले आएं। कहने का मतलब यह है कि हमें पहले अपनी मूल समस्या की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। दलित समस्या को सही रूप में लेना बहुत महत्वपूर्ण बात है लेकिन कुछ निहित स्वार्थी लोग जिन में कुछ हमारे अज्ञानी भाई भी शामिल हो सकते हैं, हमें हमारी मूल समस्या और हल की तरफ़ से हटा कर दूसरी ओर ले जाना चाहते हैं जहां हम व्यर्थ भटकते ही रहें और अपनी मंजि़ल तक न पहुंच पायें।

हमें अपनी मूल समस्या का निदान ढूंढते हुए यह देखना चाहिए कि हम पर तरह - तरह के अत्याचार लाखों गांवों में रोज़ाना कही न कहीं हाते ही रहते हैं, इसलिए उन्हीं लाखें गांवों में रहने वाले मददगार चाहिए। और हमें धन-दौलत की मदद देने वाला नहीं, बल्कि बेक़सूर होते हुए भी हमें निर्दयतापूर्वक क़त्ल करने वाले उन अत्याचारियों के हाथ रोकने वाला मददगार और मार्शल चाहिए, ताकि पहले अत्याचारी से हमारी जान बच सके।

ईसाई भारत देश के बहुत थोड़े से गांवों में हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं कि वे हमारी रक्षा कर सकें। लेकिन मुसलमान इस देश में सत्तर फ़ीसदी गांव में हैं और वे ख़ुद में मार्शल हैं। वे अपनी कोम पर, धर्म बन्धुओं पर अत्याचार होते सहन नहीं कर सकते। इस प्रकार यदि हम इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेते हैं तो निश्चय ही हमारी मूल समस्या हल हो जाएगी। बाबासाहब ने स्वयं कहा था कि मैं अपने लोगों को सर्वोत्तम धर्म देना चाहता हूं, लेकिन समय ने बता दिया है कि बाबासाहब ने जो सर्वोत्तम बौद्ध धर्म रूपी औषधि दी वह हमें काफ़िक़ नहीं आई, अतः उस दवाई का विकल्प लेना बाबासाहब की आज्ञा का उल्लंघन नहीं वरन उनके द्वारा निश्चित किए गए उद्देश्यों को पाना है।

• इस्लाम मध्यम मार्ग है :

आप इस बात से सहमत होंगे कि धर्म बेहतर जीवन जीने की कला (साधन) मात्र है। इसके संसार में हमें तीन रूप मिलते हैं। घोर ईश्वरवादी और घोर अनीश्वरवादी तथा बुद्धिपरक ईश्वरवादी। घोर ईश्वरवादी इन्सान को कोई अहमियत ही नहीं देते। घोर अनीश्वरवादी केवल मनुष्य को ही सब कुछ मानते हैं। ये दोनों रास्ते अतिवादी रास्ते हैं। हमने भी इन्ही में से एक बौद्ध धर्म को चुना था। लेकिन एक तीसरा मध्यम मार्ग इस्लाम धर्म का है जो अल्लाह में भी विश्वास करता है लेकिन यह इन्सान को भी अहमियत देता है। वह कहता है कि सारे संसार की तरह ही इन्सान को भी अल्लाह ने ही बनाया है लेकिन इन्सान को अल्लाह ने स्वतंत्र छोड़ दिया कि वह भी भला-बुरा कर्म करना चाहे कर सकता है, और इस प्रकार अपने कर्मों के लिए ख़ुद इन्सान ही जि़म्मेदार है, अल्लाह नहीं। अल्लाह नही कहता कि कमज़ोरों पर अत्याचार करो, उन का शोषण करो बल्कि उसने तो ऐसे मज़्लूमों के साथ हमदर्दी करने का आदेश दिया है। अमने ईश्वर को इसी लिए मानना छोड़ा था कि हिन्दू धर्म में कहा गया है कि इन्सान जो भी कर्म करता है ईश्वर के ही आदेश से करता है। अतः जो अत्याचार ग़रीबों के साथ हो रहे हैं वे ईश्वर के आदेश से ही हो रहे हैं। और इस प्रकार अत्याचार करने वाले का कोई दोष नहीं होता। यह ईश्वरवादी दर्शन हमें पसन्द नहीं था। इसके अलावा हमारी समस्या दर्शन की नहीं है। जो हमारे लोगों को धूं लट्ठ मारता है वह कोई दर्शन फर्शन नहीं जानता है उसे तो यह पता है कि ये नीच हैं इन्हें मारना मेरा अधिकार है।

• मुसलमानों द्वारा दलितों की सहायता :

दूसरी तरफ़ आम मुसलमानों ने मानवी आधार पर अछूतों की सदा ही कुछ न कुछ मदद की है। जब धर्म परिवर्तन करने की कोई भी बात न थी तब भी मुसलमानों ने अछूतों की मदद की। महाद तालाब के आंदोलन में जब हिन्दुओं ने अछूतों को बेरहमी से मारा तब अछूतों ने मुसलमानों के ही घरों में शरण ली थी। जब महाद तालाब का जल पीने के लिए दुबारा आंदोलन करने के लिए पंडाल के लिए किसी भी हिन्दू ने जगह नहीं दी थी तब मुसलमानों ने ही जगह दी थी। (पृष्ठ ७४ - ७५, जीवन संघर्ष, लेखक - जिज्ञासू)

बाबासाहब ने सिद्धार्थ कालेज की स्थापना की तो इसके निर्माण के लिए बम्बई के मुसलमान सेठ हुसैन जी भाई लालजी ने ५० हज़ार रुपया चंदा दिया और सर काउसजी जहांगीर ने भी सहयोग प्रदान किया किन्तु सखेद कहना पड़ता है कि श्री गोविन्द मालवीयजी ने इसकी कटु आलोचना की। (पृष्ठ. १२५, जीवन संघर्ष, लेखक - जिज्ञासू)

दूसरी गोलमेज़ कांफ्रेंस में हिदुस्तान के नेताओं में काफ़ी ले दे हुई। अछूतों की मांग को कुचलने के लिए गांधीजी ने गुप्त संधि करने की कोशिश की और जिन्नाह साहब से गांधीजी ने कहा - मै तुम्हारी सब शर्तें मानने को तैयार हूँ यदि तुम मेरे साथ मिलकर अछूतों की मांग का विरोध करो।’ परन्तु जिन्नाह साहब ने इस बात को स्वीकार नहीं किया और कहा - हम स्वयं अल्पसंख्यक होने के कारण जब विशेषाधिकार चाहते हैं, तो फिर हम दूसरे अल्पसंख्यकों की मांग का विरोध कैसे कर सकते हैं।’ (पृष्ठ. १३, पूना पैक्ट बनाम गांधी, लेखक - शंकरानन्द शास्त्री)

हिन्दुओं ने बाबासाहब को विधान परिषद में न आने देने के लिए पूरे प्रबन्ध कर लिए थे और कहा था कि हमने डॉ. आंबेडकर के लिए विधान परिषद में आने के लिए तमाम रास्ते बन्द कर दिए हैं, तब बाबासाहब ने यूरोपियन वोट प्राप्त कर विधान परिषद में आना चाहा तो  गांधीजी ने यह अड़ंगा लगाया कि बंगाल असैम्बली के यूरोपियन सदस्यों को अपने वोट देने का अधिकार नहीं है। तब बाबासाहब योगेन्द्रनाथ मन्डल और मुस्लिम लीग की सहायता से अछूतों के प्रतिनिधि निर्वाचित होकर विधान परिषद में आ सके थे। (पृष्ठ. १४१, जीवन संघर्ष, लेखक - जिज्ञासू)

• बाबासाहब द्वारा इस्लाम और मुसलमानों की प्रशंसा :

जहां मुसलमानों ने दलित वर्ग की क़दम - क़दम पर सहायता की है वहीं बाबासाहब ने भी इस्लाम धर्म और मुसलमानों की दिल खोलकर प्रशंसा की है। बाबासाहब यदि किसी धर्म को दिल से सबसे ज़्यादा पसन्द करते थे तो वह केवल इस्लाम धर्म ही है। अदाहरण के लिए उन्हीं के शब्द आगे अंकित किए जा रहे हैं - "इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म में जो समानता की शिक्षा दी गई है उसका सम्बन्ध विद्या, धन - दौलत, अच्छे कपड़े और बहादुरी ऐसे वाह्य कारणों से कुछ भी नहीं है। मनुष्य का मनुष्यत्व (इन्सानियत) यही सब से महत्वपुर्ण चीज़ है। यह (इन्सानियत) इस्लाम और ईसाई धर्म की बुनियाद है और यह इन्सानियत सबको मान्य होनी चीहिए। किसी को असमान नहीं मानना चाहिए। यह शिक्षा वे (इस्लाम और ईसाई) धर्म देते हैं।"

"धार्मिक सम्बन्ध के कारण तुर्कों का गठजोड़ अरबों से रहा। इस्लाम धर्म का संयोग मानवता के लिए बहुत प्रबल है, यह बात सबको ज्ञात है। इस्लामी बन्धुत्व की दृढ़ता की प्रतियोगिता कोई अन्य सामाजिक संघ नहीं कर सकता।" (पृष्ठ. २४४, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक - डॉ. आंबेडकर)

• मुसलमान प्रगतिशील है :

"जहां मुसलमान अपनी सामाजिक कुरीतियों की कीचड़ में फंसकर पतनोन्मुख हो रहे हैं और बहुत ही रुढ़िवादी हैं वहां भारत के मुसलमान उन बुराइयों से विमुख हैं और हिन्दुओं की तुलना में वे अधिक प्रगतिशील हैं। जो लोग मुस्लिम समाज को अति निकट से जानते हैं उनके लिए उक्त प्रभाव का प्रसार उन्हें अचरज में डाल देता है।’’ (पृष्ठ. २५३, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक - डॉ. आंबेडकर)

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि बाबासाहब डा. आंबेडकर इस्लाम धर्म को बड़े ही श्रद्धाभाव से देखते थे। वे इसकी बुनियाद इन्सानियत मानते थे। वे इस्लामी संघ को संसार में सुदृढ़ भाईचारे का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक एवं प्रगतिशील संघ मानते थे। फिर क्यों न हम अपनी मूल समस्या के समाधान के लिए लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्ण रूप से सक्षम, सामाजिक दासता की बेड़ियों को काटकर फेंकने के लिए और बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के सपनों को साकार बनाने के लिए इस्लाम जैसे प्यारे धर्म को अपनाएं जिससे कि सुख, शांति एवं समृद्धि को प्राप्त कर लें और अपने परलोक को भी सुधार लें। आइये हम भी इस्लाम की शीतल छाया की ओर चल पड़ें।

राष्ट्रीयता के नाम पर हिन्दू लोग दलित वर्ग को धोखा दे सकते हैं। लेकिन मुसलमानों को मूर्ख नही बना सकते। कुछ लोग बाबासाहब की उस उक्ति को सामने रखना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा, बताते हैं कि - "हम लोग यदि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करेंगे तो हमारी भारतीयता में अन्तर आ जाएगा। याद रखिए धर्म परिवर्तन के साथ राष्ट्रीयता में कोई अन्तर नहीं आता है। यदि ऐसा ही वे देश भी सोच लेते जहां के लोग आज बौद्ध धर्म को मानते हैं तो बौद्ध धर्म किसी भी अन्य देशवासियों ने न अपनाया होता क्योंकि वह उनके देश में पैदा हुआ धर्म नहीं है।" इस स्पष्टीकरण के साथ ही इस प्रसंग में बाबा की ही यह उक्ति अधिक घ्यान योग्य है कि - "वे (सवर्ण हिन्दू) राष्ट्रीयता के नाम पर हिन्दू निम्न वर्ग (दलित वर्ग) को धोखा दे सकते हैं परन्तु अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए वे मुस्लिम क्षेत्र की मुस्लिम जनता को मूर्ख नहीं बना सकते।" इसके साथ ही वहीं पर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि ‘लिंकन का यह कथन सटीक है कि तमाम समय सब लोगों को मूर्ख बना सकना संभव नहीं है।’ (पृष्ठ. ११४ - ११५, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक - डॉ. आंबेडकर, जुलाई १९७२ संस्करण)

कुछ लोगों का कहना है कि इस्लाम विज्ञान को अपना शत्रु मानता है। परन्तु बाबासाहब इसके उत्तर में कहते हैं कि ‘यह सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि इसमें यथार्थता होती तो जगत के अन्य मुस्लिम देशों में परिवर्तन, पूछताछ तथा सामाजिक सुधार की भावना की हलचत क्यों दिखाई देती?" यदि इन मुस्लिम देशों के सामाजिक सुधार में इस्लाम ने कोई व्यवधान नहीं डाला तो भारतीय मुसलमानों के सुधारवादी मार्ग में कोई बाधा क्यों पड़नी चाहिए? भारत में मुस्लिम जाति की उक्त गति शून्यता का कोई विशेष कारण अवश्य है। वह विशेष कारण क्या हो सकता है? मेरी समझ में भारतीय मुसलमानों में उक्त गति शून्यता का मुख्य कारण उनकी वह विशिष्ट स्थिति है जिस में वे रह रहे हैं। वे एक ऐसे सामाजिक वातावरण में रह रहे हैं जो मुख्य रूप से हिन्दू है और जो उन पर चुपचाप परन्तु दृढ़ता पूर्वक अपना प्रभाव डाल रहा है। (पृष्ठ. २६७, पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, लेखक - डॉ. आंबेडकर)

• मुसलमानों में भी जातिवाद है? :

धर्मान्तर के रास्ते में और भी एक अड़ंगा डाला जाता है। जाति भेद ग्रस्त होकर धर्मान्तर करने में कुछ भी लाभ नहीं है। इस प्रकार का युक्तिवाद कुछ मूर्ख हिन्दू लोग ही करते हैं। वे तर्क देते हैं - कहीं भी जाइये वहां पर भी जाति-भेद ही है। ईसाइयों में भी जाति भेद है और मुसलमानों में भी। अफ़सोस से यह बात क़बूल करनी पड़ती है कि इस देश के अन्य धर्म समाजों में भी जातिभेद का प्रवेश हुआ है किन्तु इस अपराध के अपराधी हिन्दू लोग ही हैं। मूल में यह रोग उन्हीं से उत्पन्न हुआ है। उसका संसर्ग फिर अन्य समाजों को लगा है। यह उनकी दृष्टि से नाक़ाबिल बात है। ईसाई और मुसलमानों में यदि जाति भेद है भी तब भी वह जाति भेद हिन्दुओं के जाति भेद जैसा ही है, यह कहना ‘चोरों को सारे नज़र आते हैं 'चोर’ वाली बात है। हिन्दुओं में जातिभेद और मुस्लिम तथा ईसाइयों में जाति भेद इन दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। सबसे पहले तो यह बात ध्यान में रखनी होगी कि मुसलमानों और ईसाइयों में जाति भेद होने पर भी वह उनके समाज का प्रमुख अंग नहीं है। हिन्दुओं को छोड़कर यदि दूसरों से आप यह पूछते हैं कि आप कौन हैं तो वे कहेंगे - मैं मुसलमान हूं , या ईसाई हूं। इतना ही उत्तर मिलने पर सबका, मतलब उत्तर देने वाले का और प्रश्न पूछने वाले का समाधान हो जाएगा। तेरी जाति क्या है? यह पुछने की या बताने की किसी को भी आवश्यकता नहीं है। किन्तु यदि आप किसी हिन्दू से पूछते हैं - "तुम कौन हो?" तो वह उत्तर देता है कि ‘मैं हिन्दू हूँ’ तो इससे किसी का भी समाधान होने वाला नहीं है। न तो प्रश्न पूछने वाले का और न ही उत्तर देने वाले का। फिर प्रश्न पूछा जाता है कि तुत्हारी जाति क्या है? जब तक वह अपनी जाति का नाम न बताए किसी को भी उसकी वास्तविक स्थिति का पता नहीं चलेगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू समाज में जाति - पाति को कितनी प्रधानता दी गई है और ईसाई और मुस्लिम समाज में जाति को कितना गौण स्थान दिया गया है। यह बात स्पष्ट हो जाती है।

इसके अतिरिक्त हिन्दू और अन्य समाजों में और भी एक महत्वपूर्ण फ़र्क़ है। हिन्दुओं के जाति भेद के मूल में स्वयं उनका हिन्दू धर्म है। मुस्लिम और ईसाइयों के जाति भेद के मूल में उनके धर्म की स्थपना नहीं है। हिन्दुओं में जाति भेद समाप्त करने में उनका धर्म इसमें अड़ंगा बन जाता है किन्तु ईसाई और मुसलमान लोगों ने अपना आपस का जाति भेद नष्ट करने का प्रयास किया तो उनका धर्म इसमें अड़ंगा नहीं बनता बल्कि उनका धर्म जाति भेद को हतोत्साहित करता है। हिन्दुओं को अपने धर्म का विध्वंस किए बिना जाति विध्वंस करना सम्भव नहीं है। मुस्लिमों और ईसाइयों को जाति विध्वंस करने के लिए अपना धर्म विध्वंस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जाति विध्वंस के काम में उनका धर्म अड़ंगा बनने वाला नहीं है। जाति भेद सब में और सभी ओर है, यह क़ुबूल करने पर भी हिन्दू धर्म में ही रहो, ऐसा निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । जाति भेद यह चीज़ यदि बुरी है तो जिस समाज में जाने पर जाति भेद की तीब्रता, जाति भेद का विनाश, शीघ्र, सहजता से और मूल रूप से नष्ट किया जा सकता है, यही वास्तव में तर्क सिद्ध सिद्धान्त है, ऐसा मानना पड़ेगा। यद्यपि उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि मुसलमानों में जाति - पाति केवल सुविधा के लिए है। ईष्र्या, द्वेष या घृणा के लिए नहीं। फिर भी यदि इसे दोष के रूप में लें तो मुसलमानों में जातिवाद इतना गहरा नहीं जितना हिन्दुओं में जातिवाद उनके धर्म का अभिन्न अंग है।

अत्यंत गंभीरता से सेचने की बात यह है कि क्या सिर्फ़ जातिवाद ही हमको परेशान कर रहा है? ऐसी बात बिल्कुल निराधार है। केवल जातिवाद ही किसी को परेशान नहीं कर सकता। यदि हमारे लोगों को चमार कहा होता और हमें पूरी मुहब्बत और इज़्ज़त दी होती तो हमें क्या परेशानी थी? यदि केवल जातिवाद ही परेशान करने वाला हो तो सवर्ण हिन्दुओं में भी तो अलग - अलग जातियां हैं और यहां तक कि उनकी भी शादियां आपस में एक दूसरी जातियों में नहीं होती हैं। ऐसा होने पर भी बताइये ब्राह्मण से क्षत्रिय या वैश्य कहां परेशान हैं? या क्षत्रिय से ब्राह्मण और वैश्य कहां दुखी हैं? आदि आदि। बल्कि ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य तो बेहद सौहार्द, प्रेम एवं सहयोग के साथ रहते हैं। स्वयं अपनी तरफ़ देखिये - दलित वर्ग में भी तो अनेक जातियों हैं और उनमें भी एक दूसरे में शादियां नहीं होती हैं। उसके बावजूद भी बताइये भंगी चमार से कहां परेशान हैं? चमार, भंगी से या खटीक से कहां परेशान हैं? रैगर चमार से या धनक से कहां परेशान हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि केवल अलग - अलग जातियां होने से ही कोई परेशान नहीं हैं। केवल आप चमार जाति को ही देख लें। इसमें भी कई जातियां बन गई हैं और यहां तक कि इनमें भी आपस में शादियां नहीं होती हैं। चमड़ा रंगने वाले चमार के साथ नौकरी पेशा या खेती करने वाला चमार कभी शादी - सम्बन्ध नहीं करता है। लेकिन यदि चमड़ा रंगने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म ढाया जाता है तो नौकरी पेशे वाला चमार व्याकुल हो उठता है और उसकी सामर्थ्‍य अनुसार सहायता के लिए भी तैयार रहता है। ठीक इसी प्रकार यदि नौकरी या खेती करने वाले चमार पर कोई ज़ुल्म या अत्याचार होता है तो चमड़ा रंगने वाला चमार और अन्य चमार बहुत दुखी होते हैं और उसे अपने ऊपर हुआ ज़ुल्म और अत्याचार समझते हैं। ऐसा क्या होता है कि उन में आपस में घृणा, ईष्र्या या द्वेष नहीं है बल्कि उसके स्थान पर प्यार, लगाव व सहानुभूति है। कुछ भाई इस प्रकार की शंका पैदा करने लगते हैं कि धर्मान्तरण के बाद चाहिए कि सबसे पहले तो मुसलमान ही ब्याह शादियों केलिए तैयार रहते हैं और सदियों से भारतीय मुस्लिम समाज में यह सिलसिला जारी है। दुसरे हम आपस में भी तो रिश्ते का सकते हैं।

मुसलमान में जब किसी बढ़ई, लुहार या सक़क़े के बेटे की बारात सज - धजकर शान से निकाली जाती है तो कोई भी शैख़, सैयद, मुग़ल या पठान उसमें बाधा नहीं डालता है लेकिन हिन्दुओं में यदि किसी चमार या भंगी के बेटे की बारात सज - धजकर निकाली जाती है तो उसमें विघ्न डाला जाता है, उन पर पत्थर फेंके जाते हैं, कहीं उन्हें पीटा जाता है, और कहीं उनको जिन्‍दा जला दिया जाता है। कफलटा में दुल्हे के घोड़ी पर चढ़े होने के कारण ही १४ बारातियों को जिन्दा जला दिया गया था। तात्पर्य यह है कि मुसलमानों में जाति के नाम पर घृणा, द्वेष या ईष्र्या नहीं है जब कि हिन्दुओं में जाति के नाम पर हमसे घृणा, द्वेष और ईष्र्या है जिस की वजह से हम पर तरह - तरह के अत्याचार किये जाते हैं। अत्याचारों के उस सिलसिले को केवल इस्लाम ही समाप्त कर सकता है। मुसलमान होकर व्यर्थ की घृणा, द्वेष व अत्याचारों से बचा जा सकता है, जो हमारी मूल समस्या है।

◆ इस्लाम की प्रमुख शिक्षाए :

ईश्वर एक है, उसका कोई साझी नहीं। वह अकेला है, उसके सिवा कोई पूज्य नहीं। वह अत्यंत कृपाशील और दयावान है। ईश्वर अपने बन्दों के प्रति इतना उदार है कि उनकी ग़लतियों और भूलों को क्षमा कर देता है बशर्ते कि वे उसकी ओर रुजू करें। गुनाहगार और पापी भी यदि पश्चाताप प्रकट करके पवित्र जीवन की प्रतिज्ञा करता है तो उसपर भी ईश्वर दया करता है। जिन लोगों ने ईश्वर का भय रखा और परहेज़गारी का जीवन बिताया उनके लिए स्वर्ग है। और जिन्होंने ईश्वर का इन्कार किया औन सरकशी का जीवन बिताया उनका ठिकाना निश्चित रूप से नरक है। जो व्यक्ति झूठ न बोले, वादा करके न तोड़े, अमानत में ख़यानत न करे, आंखें नीची रखे, गुप्त अंगों की रक्षा करे और अपने हाथ को दूसरें को दुख और कष्ट पहुंचाने से रोके, वह जन्नत में जाएगा।

घमंड से बचो। घमंड ही वह पाप है जिसने सबसे पहले शैतान को तबाह किया। आपस में छल - कपट और बैर न रखो। डाह और ईष्र्या न करो, पीठ पीछे किसी की बुराई न करो। तुम सब भाई भाई हो। शराब कभी न पियो। जीव - जन्तुओं को अकारण मत मारो। माता - पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो। मां-बाप की ख़ुशी में ईश्वर की ख़ुशी है। बाल - बच्चों की अच्छी देखभाल करो और उनको अच्छी शिक्षा दो। किसी इन्सान को किसी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। हां, वह इन्सान सर्वश्रेष्ठ है जिसके कर्म अच्छे हैं। चाहे उसका सम्बन्ध किसी भी देश अथवा सम्प्रदाय से हो। ब्याज खाना और ब्याज का कारोबार हराम (अवैध) है। नाप - तौल में कमी न करो। सबके साथ न्याय करो, चाहे तुम्हारे रिश्तेदार हो या दुश्मन। अगर कोई किसी इंसान को नाहक़ क़त्ल करता है तो मानो उसने सारे इंसानों की हत्या कर दी। और अगर कोई किसी इंसान की जान बचाता है तो मानो उसने सारे इंसानों को ज़िन्दगी बख्शी।

सफ़ाई सुथराई आधा ईमान है। वह आदमी मुसलमान नहीं जो ख़ुद तो पेटभर खाए और उसका पड़ोसी भूखा रहे। सारे इंसानों को मरने के बाद ख़ुदा के सामने हाजिर होना है और अपने कर्मों का हिसाब देना है। यह दुनिया तो इम्तिहान की जगह है। ख़ुदा इंसानों के मार्गदर्शन के लिए अपने पैग़म्बर भेजता रहा है और अन्त में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) को अपना आख़िरी पैग़म्बर बनाकर भेजा है। रहती दुनिया तक सारे इंसानों के लिए ज़रूरी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) का अनुसरण करें। क़ुरआन अल्लाह की भेजी हुई किताब है जो हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के ज़रिये समस्त इंसानों की रहनुमाई के लिए भेजी गयी। इसमें पूरी ज़िन्दगी के लिए हिदायतें दी गई हैं। जाति, रंग, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्र, राष्ट्रीयता के आधर पर हि कसी के साथ ऊँच - नीच, छूतछात, भेदभाव और पक्षपात का व्यवहार न करो। ग़लत तरीके से दूसरें का माल न खाओ। हलाल (वैध) कमाई करो।

•◆●■ समाप्त ■●◆•

लेखक -
एस. आर. विद्यार्थी
(एम. ए. एल. एल. बी.)

प्रचारक, अनुवादक एवं संकलन कर्ता -
यतिन जाधव (व्यवस्थापक एवं संचालक)
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